एक युग एक प्रतीक | Ek Yuga Ek Pratiik

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Ek Yuga Ek Pratiik by देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ सो, मनुष्य जो रददस्य की व्याख्या किया करता है वह सब समय शत्य के नजदीक ही नहीं दोता । श्रौर यह श्रच्छा ही है कि उसे सब रहस्यों का पता नहीं है । मगर बलिहारी है उस जादूगर के हुनर की, जिसने इतने बड़े रहस्य को इतना सुन्दर बना दिया । मैंने श्रौर श्रापने किसी दिन साथ ही साथ सादित्य-क्षत्र में प्रवेश किया थी । श्राप शाश्वत मानव-चित्त के रस-निभर का संधान खोजने निकल पड़े श्र में रटी-रटाई बोलियों के माध्यम से कविता का रहस्य समभने लगा । लेकिन शुरू में ही ज्योतिष की छाया पड़ जाने से मेरी दृष्टि कुछ अजीब-सी धूमिल हो गई थी । मुझे उन तथाकथित बड़ी-बड़ी बातों को गम्भीरतापूर्वक न देखने की श्रादत पढ़ गई है जिन्हें मनुष्य ने लोभवश श्रौर मोहवश बड़प्पन दे रखा है । मैं दुनिया की ऐसी बहुत-सी बातों को हंस के टाल सकता हूँ जिन्हें साघारणतः पशण्डितजन भी महत्वपूण मान लेते हैं । में बराबर सोचता रहता हूँ कि श्रनन्तकाल श्रोर श्रनन्त देश के भीतर यद्द श्रत्यन्त ठुच्छ मानव-जीवन श्रौर उसकी चेष्टाएँ बहुत श्रधघिक महत्व की वस्तु नहीं हैं । साहित्य के श्रध्ययन ने इसमें थोड़ा सुधार भी किया है । में मनुष्य की उस महिमा को भूल नहीं सकता जो इस विशाल ब्रह्मांड की नाप-जोख करने का साइस रखती है । ज्योतिष ने मेरी दृष्टि में जहां उपेक्षा की धूमिलता दी है वहीं कविता ने मुझे मनुष्य के हृदय की महिमा समभकने की रंगीनी भी दी है । में जानता हूँ कि इस हृदय से निकला इुश्रा दर ई'ट-पत्थर श्मूल्य: हो जाता है। कविता में उस हृदय गंगा के स्नात भश्वर पदार्थों की महिमा व्यक्त होती है । इन कास के फूलों की कया बिसात है; इन हंसों. की ध्वनि का कया मूल्य है, इस कब के ठण्टे बने हुए राख श्रौर धूल के देले चन्द्रमा की कया बुकत है, परन्तु मनुष्य के हृदय के भीतर से एक. बार घुल जाने के बाद इनकी कीमत श्रॉँकिये । हां; मनुष्य मनुष्य कहदाने- लायक होना चाहिए । कालिदास की झांखों के रास्ते यद्दीं शरद ऋठ, किसी दिन उनके विशाल श्रोर सरस हृदय में प्रविष्ट हुई थी। वह्दां से




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