पद्य - पद्माकर | Pady Padmakar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ब-महात्मा सूरदास कदि-कुल-शिरोमणि भक्क-प्रचर सूरद-सजी ने चीरासी वेप्णुचों की चात्तां के अनुसार लगभग सचद्‌ १४.४० में झागरा से सथुरा जाने वाली सडक पर रनकुचा आम से श्री रामदासजी नासक सारस्वत घ्ाहाण के घर में जन्स लिया । कोई भक़क सूरदासजी को जन्मान्घध कहने है तो कोई कहते है कि वह जन्मान्घ न थे । कोई भी जन्मान्घ इस प्रकार सानव स्वभाव एव प्रद्मति की अनेक चस्तुम्रो और र ग-रूपा दि का चुन नहीं कर सकता, अत' चह सन्यसान्ध न थे । यह बे खेद का दिपय है कि हिन्दी साहित्य सूर के बारे में झभोी तक कोई निश्चित प्रमाएं द्वारा उनका जीचन-घ्ुत स्थिर न कर सका । ये वदलभाचायं के अष्ट प्रधान शिष्यों में प्रघान थे। इन्हीं के ध्वादेश से इन्होंने श्रीसदूभागवत के झ्ाधघार पर श्रोकृष्णु-चरित्र सस्वन्वी सूरसागर' नामक ग्रन्थ की रचना की । इन्होने सवाखाख पद बनाये थे, पर अब छुः हजार से अधिक पद नहीं मिलते । परन्तु छुः हजार पद ही कवि की कवित्व-श के के झदूसुत चमत्कार के परिचायक है । सूर हिन्दी के सर्वोत्कू्ट कवि माने जाते हैं। गोस्वामी जी को छोड़कर हिन्दी का कोई कवि इन तक नहीं पहुँच सका है। कुछ लोग तो इन्हें गोस्वामी जी से भी ऊँचा स्थान निम्न दोहे के छाधघार पर देते है: -- सूर सूर तुलसी ससखि उडुगन केशबदास । झब के कवि खद्योत सम जहा तहें करत प्रकास ॥ कुछ भी सही, पर दोनों कवियों का लोक-कदयाण की दृष्टि से समान श्रादर है। सूचमातिसूचम भावों में सूर तुलसी से ऊंचे डहरते हैं । साषा की दृष्टि में दोनो का समान अधिकार है ।




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