विवेकानंद संचयन भाग १ | Vivekanand Shanchan 1

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Vivekanand Shanchan 1 by स्वामी विवेकानंद

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन प्राणरूप शक्तियों का क्या होता है ? वे आदिप्राण से मिल जाती हैं । यह प्राण उस समय बहुत कुछ गतिहीन हो जाता है, परन्तु इसकी गति बिलकुल ही बन्द नहीं हो जाती । वैदिक सूकतों के 'आनीदवातम्‌' - “वह गतिहीन भाव से स्पन्दित हुआ था” - इस वाक्य से इसी तत्त्व का वर्णन किया गया है। वेदों के कितने ही पारिभाषिक शब्दों का अर्थनिर्णय करना अत्यन्त कठिन काम है। उदाहरण के रूप में हम यहां 'वात' शब्द को ही लेते हैं । कभी-कभी तो इससे वायु का अर्थ निकलता है और कभी-कभी गति सूचित होती है। इन दोनों अर्थों में बहुधा लोगों को भ्रम हो जाता है। अतएव इस पर ध्यान रखना चाहिए । अच्छा, तो उस समय भूतों की क्या अवस्था होती है? शक्तियां सर्वभूतों में ओतप्रोतत हैं । वे उस समय आकाश में लीन हो जाती हैं, इस आकाश से फिर भूतसमूहों की सृष्टि होती है । यह आकाश ही आदिभूत है । यही आकाश प्राण की शक्ति से स्पन्दित होता रहता है और हर नयी सृष्टि के साथ ज्यों-ज्यों प्राण का स्पन्दन द्रुतत होता जाता है, त्यों-त्यों आकाश की तरंगें कषुब्ध होती हुई चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि के आकार धारण करती जाती हैं । हम पढ़ते हैं, 'थदिदं किंच जगत सर्द प्राण एजति निंःसुतम ।' (ऋगेद 101 12 1211) इस संसार में जो कुछ है, प्राण के कम्पित होने से निःसृत होता है।' यहां “एजति' शब्द पर ध्यान दो; क्योंकि 'एजु' धातु का अर्थ है कांपना, “निःसुत्तम' का अर्थ है प्रक्षित्त और “यादिदम किंच' का अर्थ है इस संसार में जो भी कुछ । जगत्‌-प्रपंच की सृष्टि का यह थोड़ा-सा आभास दिया गया। इसके विषय में बहुत-सी छोटी-छोटी बातें कही जा सकती हैं । उदाहरणस्वरूप किस तरह सृष्टि होती है, किस तरह पहले आकाश की ओर आकाश- से दूसरी वस्तुओं की सृष्टि होती है, आकाश में कम्पन होने पर वायु की उत्पत्ति कैसे होती है, आदि कितनी ही बातें कहनी पड़ेंगी। परन्तु यहां एक बात पर ध्यान रखना चाहिए, वह यह कि सूकष्मतर तत्त्व से स्थूलकर तत्त्व की उत्पत्ति होती है, सब से पीछे स्थूल भूत की सृष्टि होती है । यही बाह्यतम वस्तु है, और इसके पीछे सूक्ष्मतर भूत विद्यमान है । यहां तक विश्लेषण करने पर भी, हमने देखा कि सम्पूर्ण संसार केवल दो तत्त्वों में पर्यवसित किया गया है, अभी तक चरम एकत्व पर हम नहीं पहुंचे । शक्तित्व के एकत्व को प्राण और जड़तत्त्व के एकत्व को आकाश कहा गया है । क्या इन दोनों में भी कोई एकत्व पाया जा सकता है ? थे भी क्या एक तत्त्व में पर्यवसित किये जा सकते हैं ? हमारा आधुनिक विज्ञान यहां मूक है, वह किसी तरह की मीमांसा नहीं कर सका और यंदि उसे इसकी मीमांसा करनी ही पड़े तो जैसे उसने प्राचीन पुरुषों की तरह आकाश और प्राणों का आविष्कार किया है, उसी तरह उनके मार्ग पर उसे आगे भी चलना होगा। उ7




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