देवकी का बेटा | Devaki Ka Beta

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Devaki Ka Beta by रांगेय राघव - Rangaiya Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देवकी का बेटा १७ “वे यहां हमसे पुराने निवासी हैं । उनके हाथ में यमुना का व्यापार है । कंस तक उससे नहीं अटका ।”' “कंस नहीं अटका, क्योंकि वह अनार्य्यों का मित्र है। कालिय ने सर्वा- : घिकार कर रखा हूँ । यमुना का वह भाग तो हमारे लिए वर्जित ही है । और कालिय वंशी, ये नाग भी तो यहां पहले नहीं रहते थे । उत्तर के गरुड़ों ने इन्हें ' मारकर भगाया था।” “सो तो है ।” भीतर से पितामही ने कहा, “किंतु नागों के पास शक्ति हूं, धन है । वधू ! उनसे न अटकना ही ठीक है । फिर तू कया नहीं जानती कि हम संकट में हैं । तुम सबकी रक्षा करना नन्दगोप पर आश्रित हैं। और अंधक कंस अभी नन्दगोप पर संदेह ही करता है ।” “अरे तु खाता चल न ! ” रोचना ने कहा, “देखूं भीतर क्या हो रहा है ।” और वह चली गई । “कृष्ण ने खाया नहीं “खाता क्यों नहीं ?” यद्योदा ने पूछा । “सोचता हूं। “क्या भला ?” “हुम गोप हैं न अम्ब ?”” महक “तुम कहती हो हम,वृष्णियों के सम्बन्धी हैं ? ” “हां, क्यों ? “आप वासुदेव की पत्नियां और संतान यहां क्यों रहते हैं ? भर वह भी छिपकर ! क्यों मातर ! ” यशोदा सहसा उत्तर न दे सकी । कहा, “सम्बन्धी हैं। रहते हैं। तु तो जानता ही है कि अंधक इस समय वृष्णियों के शत्रु हैं । खाता चल लेकिन ।” “खाता हूं मां ! ” कृष्ण ने कहा, “और यह नाग भी हमारे शत्रु हूँ ? ” “जिसका स्वाथ॑ अटकता हैं वह तो शत्रु हो ही जाता है, पुत्र ! अच्छा, जाने दे । तूने यह नहीं बताया कि आज फिर क्या हुआ ?” “कुछ नहीं मातर,” कृष्ण ने कहा, “फिर मैं और चित्रगंधा घर आओ गए।”




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