मील के पत्थर | Meel Ke Patthar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रामवृक्ष बेनीपुरी - Rambriksh Benipuri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बापू की कुटिया में
रोशनी को कमी नही ।
बाप, तुम चले गये । यह सदमा हमनें, सारे राष्ट ने किसी तरहें सह
ही लिया । किन्तु जब यह सोचता हुँ कि बास, काठ और चटाई से बनी
यह कुटिया श्राठ-दस वर्षों के बाद नहीं रहने पायगी--लाख चेष्टा करने
पर भी समय का कीट इसे चाट जायगा, इस कुटिया की जगह यहा
दान्यता-ही-चुन्यता रहेगी, तब हृदय श्र भी विचलित हो जाता है ।
सानव को पूजकर हमे सतोष नही, तो हम उसकी पत्थर की मूति बना-
कर पूजते और सन्तोष कर लेते है, किन्तु उससे सम्बद्ध खर-पात से कसी
ममता हो जाती है कि, हम मान लेते हे, इसकी पूर्ति तो हो नही सकती ।
हा, नही हो सकती । कंसा भी संगमरमर क्या, सोने का मन्दिर भी
एक दिन तुम यहा बनवा लो, इस कुटिया की क्षतिपूर्ति वे कर नहीं सकेगे ।
इच्छा होती है, मे जोर देकर यह कह ।
बापू की कुटिया ! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं कि बापू के बाद कम-
से-कम तुम्हे तो सदा इसी रूप में देखने का सौभाग्य पाता रहू। तुम नहीं
वोल रही--तुम्हारा यह नीरव सौन कितना श्रसह्य लग रहा है ! काश,
तुम समभ पाती, श्रो बापू की कुटिया !
र( ९ र
आर बापु, जब तुम्हारी इस कुटिया मे, तुम्हारे विस्तरे के पायताने
बेठकर यह लिख रहा हूँ, तुम्हारी कितनी मूत्तियोँ आँखो के सामने झ्राकर
मंडरा रही है !
उनमे से चार मूत्तियाँ तो मेरे जीवन से ऐसी लिंपटी है कि क्या
प्राजीवन उनसे झपसेको मुक्त कर पाऊंगा ?
पहली मूत्ति--जव मैं किशोर ही था । देहात से श्राया था, दाहर में
पढने । शुरू से ही राष्ट्रीयता की श्रोर भुकाव । तुमने दक्षिया झफ्रीका में
जो कुछ किया था, पढ़ चूका था । तुम उन दिनो क्मवीर गाघी के नाम
से हिन्दी-ससार में भिहित थे । एक दिन में झपने स्कूल में पढने जा रहा
था कि शहर के एक राष्ट्कर्मी से भेंट हो गई । वह मेरी प्रवृत्तियो को
जानते थे । वोले, कमेंवीर गाघी इसी टन से चम्पारन जा रहे हे । क्या
उनके दरदन नही करोगे ?
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