मील के पत्थर | Meel Ke Patthar

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Meel Ke Patthar by रामवृक्ष बेनीपुरी - Rambriksh Benipuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बापू की कुटिया में रोशनी को कमी नही । बाप, तुम चले गये । यह सदमा हमनें, सारे राष्ट ने किसी तरहें सह ही लिया । किन्तु जब यह सोचता हुँ कि बास, काठ और चटाई से बनी यह कुटिया श्राठ-दस वर्षों के बाद नहीं रहने पायगी--लाख चेष्टा करने पर भी समय का कीट इसे चाट जायगा, इस कुटिया की जगह यहा दान्यता-ही-चुन्यता रहेगी, तब हृदय श्र भी विचलित हो जाता है । सानव को पूजकर हमे सतोष नही, तो हम उसकी पत्थर की मूति बना- कर पूजते और सन्तोष कर लेते है, किन्तु उससे सम्बद्ध खर-पात से कसी ममता हो जाती है कि, हम मान लेते हे, इसकी पूर्ति तो हो नही सकती । हा, नही हो सकती । कंसा भी संगमरमर क्या, सोने का मन्दिर भी एक दिन तुम यहा बनवा लो, इस कुटिया की क्षतिपूर्ति वे कर नहीं सकेगे । इच्छा होती है, मे जोर देकर यह कह । बापू की कुटिया ! क्या कोई ऐसा उपाय नहीं कि बापू के बाद कम- से-कम तुम्हे तो सदा इसी रूप में देखने का सौभाग्य पाता रहू। तुम नहीं वोल रही--तुम्हारा यह नीरव सौन कितना श्रसह्य लग रहा है ! काश, तुम समभ पाती, श्रो बापू की कुटिया ! र( ९ र आर बापु, जब तुम्हारी इस कुटिया मे, तुम्हारे विस्तरे के पायताने बेठकर यह लिख रहा हूँ, तुम्हारी कितनी मूत्तियोँ आँखो के सामने झ्राकर मंडरा रही है ! उनमे से चार मूत्तियाँ तो मेरे जीवन से ऐसी लिंपटी है कि क्या प्राजीवन उनसे झपसेको मुक्त कर पाऊंगा ? पहली मूत्ति--जव मैं किशोर ही था । देहात से श्राया था, दाहर में पढने । शुरू से ही राष्ट्रीयता की श्रोर भुकाव । तुमने दक्षिया झफ्रीका में जो कुछ किया था, पढ़ चूका था । तुम उन दिनो क्मवीर गाघी के नाम से हिन्दी-ससार में भिहित थे । एक दिन में झपने स्कूल में पढने जा रहा था कि शहर के एक राष्ट्कर्मी से भेंट हो गई । वह मेरी प्रवृत्तियो को जानते थे । वोले, कमेंवीर गाघी इसी टन से चम्पारन जा रहे हे । क्या उनके दरदन नही करोगे ?




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