शब्दों का विष | Shabdon Ka Vish

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Shabdon Ka Vish by सुमेर सिंह दइया - Sumer Singh Daiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चलने देता ! सिर भ्रुककर उनवी सारी फिडक्यो को पानी की तरह गटागट पीता चला जाता है । परतु श्राज वी स्थिति भिन्न है। घर से ही वह विलम्स से निकला है श्रत वह बडे साहव के वगते पर भी जा नहीं पाया । आज दोनो अफसर एक साथ श्राग्य नेत्रा से घूरेंगे । म्रफसोस तो इस बात का है कि यह उनका विस तरह सामना मरेगा ? सच तो यह है कि दादी के सर-दर्द ने उसकी ऐसी तैसी करदी, नहीं तोवह भी मस्तक ऊ चा चरके दफ्तर मे प्रवेश वरता । उस म्रसाम- थिक घटना पर बुढने से भी कया । यद्यपि उसकी मानसिंग' स्थिति ब्रना- वयक रुप से झ्स्त-व्यस्त है, तथापि यह साधारण सी वात वह भली- भाति समकता है । इसके साथ वह उसके निराकरण का उपाय भी मन ही मन सीच रहा है। उसकी गम्भीर मुद्रा स ऐसा ही सात हुमा । इतना ही गही वि एक ठण्डी झाह भरने के भ्रतिरिक्त उसके पास कोई दूसरा विवस्प नही है । चाहे गर्मी की चिलबिलाती धूप हो भ्रथवा शीत वी सुहावन मोठो धूप फिर भी इससे कोई भ्र तर नहीं पड़ता । छत पर खड़ी रह बार दादी जब्र तक दो चार घरों मे ताक काक नहीं कर लेती, उसका कलेजा ठण्डा नहीं हो पाता । उसकी श्र वेयक दृष्टि पत्थर की छ्तो श्रौर ईटा वी दीवारों तर्क को भेद डालतो है । कोई श्रपरिचित घटना, कसी तरह की ग्रनहोनी बात या कोई श्रसाघारण प्रसंग इसके कानों श्रौर झ्राँखो से छिप नहीं पाते । कानों मे पड़ी बात को एवं दृश्य के रूप में प्र यक्ष देखन की इसकी लालसा बनी रहती है । प्रपनी उत्कण्ठा शातत करने के ग्रमिप्राय से वह श्राधी आधी रात तब छत पर बेचैनी सै दहलती रहती है 1 न जाने कैसी बेकली है ! 7 दादी / १४




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