भारतीय संयोजन में समाजवाद | Bharatiya Sanyojan Me Samajvad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सारतीय आयोजन सें समाजवाद १३ 'जमीदारी प्रथाओ' को समाप्त करने की माग की और 'विभिन्‍न किस्म की खेती मे विभिन्‍न मात्रा मे सहकारिता को अपनाने की' सिफारिश की | जाति और वर्ग-रहित समाज स्वतत्रता प्राप्ति के बाद देश का योजनाबद्ध आर्थिक विकास मुख्यत भारतीय संविधान के राज्यनीति निर्देशक सिद्धात्तो के आधार 'पर हुआ है । संविधान यह निर्देश देता है कि “राज्य लोगो के हित के लिए यथासभव ऐसी समाज-व्यवस्था कायम करने और उसे सरक्षण देने की कोद्चिश करेगा, जिसमे राष्ट्र-जीवन की सभी सस्थाभो मे सामाजिक, आर्थिक भर राजनीतिक न्याय को महत्व दिया जायगा।'' उसमे कहा गया है कि सभी नागरिकों को “रोजगार के पर्याप्त साधन 'पाने का अधिकार होगा ।” और यह कि “समाज के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियत्रण का वितरण सामान्य हित की सर्वोत्तिम पुरतति की दष्षि से किया जायगा ।” निर्देशक सिद्धात राज्य को यह निर्देश भी देते है कि वह इसका ध्यान रखे कि “आर्थिक प्रणाली के सचालन के फलस्वरूप संपत्ति और उत्पादन के साधनों का कंद्रीयकरण आम हितों के श्रिपरीत न होने पाये ।”' संविधान मे सुरक्षित इन सिद्धातो ने प्रथम पचवर्षीय योजना के 'प्रकाद्यन के समय से ही भारतीय आयोग का पथ-प्रदर्शन किया है । टूसरो योजना मे कहा गया है कि “समाजवादी ढंग के समाज की दिशा में आगे बढ़ने की रूपरेखा निर्धारित करने की सर्वोत्तम कसौटी 'निजी लाभ' की नही, बल्कि 'सामाजिक लाभ की होनी चाहिए ।” “आर्थिक विकास के लाभ समाज के अपेक्षाकृत अल्प सुविधा -भोगी वर्ग को अधिक- से-अधिक मात्रा में मिलने चाहिए और आय, सपत्ति और आधिक शक्ति के केद्रीयकरण मे उत्तरोत्तर कमी होनी चाहिए ।' ' तीसरी योजना का लक्ष्य जाति, वगे अथवा सुविधा-भोगी वर्ग-रहित समाज की स्थापना करना है, जो “समाज के हरेक वगं भौर देश के सभी भागों को विकास करने और राष्ट्रीय उत्कर्ष मे योग देने का पूरा अवसर देगा ।”'




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