कथा संगम | Katha Sangam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री जयडांकर प्रसाद ( जन्म सम्वत्‌ १६४६ - मृत्यु सम्वतु १६९६४ ) प्रसादजी साहित्य-जगत के पारस थे । साहित्य के जिस रूप को उन्होंने हाथ लगाया उसे ही जगमगा दिया । उनके काव्य को कौन सिर नहीं भुकाता, उनके नाटकों ने हिन्दी में युग-परिवतन किया । यही दना कहानी क्षेत्र में है । प्रसादजी की कहानियों का घरातल बहुत ऊंचा है । घरातल की ऊ चाई क्या ? जैसे वे “ममता” पर लिख रहे हैं । ममता विधवा है--उसका जीवन दुःखपूर्ण होगा, वह दुःख सहकर भी श्रपने सतीत्व की रक्षा करेगी--उसके सामने एक नही शभ्रनेकों प्रलोभन श्र संकट श्रा सकते है, पर वह डिगती नही; जहाँ है, वहीं श्रटल है । ऐसी “ममता” यदि हो तो उसका घरातल साधारण,होगा, पर प्रसादजी की “ममता” यह सब “साधारण” लिए हुए इससे ऊपर है। वह वैधव्य की समस्या लेकर नहीं उसके सहारे मानवता के चिर प्रदनों को उपस्थित करने के लिए उपस्थित हुई है। यह उसमें धरातल की ऊंचाई है । साघारण सामाजिक व्यवहार श्रौर आ्राचार से उठ कर वह कहानी मौलिक समस्याओं में परिणति पा लेती है । -- डा० सत्येच्द्र




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