प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष व महिलाएं | Pramukh Etihasik Jain Purush And Mahilayen (1975) Ac 5285

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Pramukh Etihasik Jain Purush  And Mahilayen (1975) Ac 5285 by ज्योतिप्रसाद जैन - Jyotiprasad Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तेग़ो तरकश के घनी थे रज़मगह में फर्द थे, इस शुजाअत पर यह वुर्रा है, सरापा दर्द थे । “वर्क देहुलवी पुबंपी ठिका जैनों के परम्परागत विद्वास के अनुमार चतमान कल्पकाल के अवसपिणी विभाग के प्रथम तीन युगो में भोगभूसि को स्थिति थी । मनुष्य जीवन की वह सर्वधा प्रकृत्याश्रित आदिम अवस्था थी । न कोई सस्कृति थी न सभ्यता, न ही कोई व्यवस्था थी गौर न नियम । जोवन अत्यन्त सरल, एकाकी, स्वतन्त्र, स्वच्छन्द और प्राकृतिक था । जो थोडी-बहुत आवद्यकताएं थी उनकी पूर्ति कल्पवुक्षो से स्वत सहज हो जाया करती थी । मनुष्य शान्त एव निर्दोष था। कोई सघर्ष या इन्द्र नहीं था । आधुनिक भूतत््व एवं नृतरव प्रभति विज्ञान सम्मत, आदिम युगीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय युगो ( प्राइमरी, से केण्डरी एवं टियरी इपेंक्स ) की वस्तुस्थिति के साथ उक्त जैन मास्यता का अदूभुत सादुर्य है । वैज्ञानिकों के उक्त तीनों युग करोडो-लाखों वर्षों के अति दीघकालीन थे, तो जैन मान्यता का प्रथम युग प्राय असख्य वर्षा का था, दूसरा उससे भाषा लम्बा था, और तीसरा दूसरे से भी आधा था तथापि अनगिनत वर्षों का था । इस भअनुमानातीत सुदीर्घ काल में मानवता प्राय सुपु्त पढ़ी रहो, अतएव उसका कोई इतिहास भी नहीं हू । वह जनाम युग था । तीसरे काल के अन्तिम भाग में चिरनिद्रिंत मनुष्य ने अंगडाई छेना आरम्भ किया । भोगभूमि का अवसान होने लगा । कालचक़ के प्रभाव से होनेवाले परिवर्तनों को दंखकर लोग शक्ति और भयभीत होने लगे । उनके मन में नाना प्रश्न उठने लगे । जिज्ञासा करवट लने लगी । अतएव उन्होंने स्वय को कुलों (जनों, समूहों या कबीलो) में यठित करना प्रारम्भ किया । सामाजिक जीवन की नीव पड़ी । बल, बुद्धि आदि विदिष्ट जिन व्यक्तिपो ने इस कय में उनका मागददन, नेतृत्व और समाघान किया वे 'कुलकर' कहलाये । व आवश्यकनानुसार अनुशासन भी रखते थे और व्यवस्था भी देते थे, अत उन्हें मनु' नाम भी दिया जाता है । उनको सन्तति होने के कारण ही इस देश के निवासी मानव कहूलाये । उक्त तीसरे युग के अन्त क॑ लगभग ऐसे क्रमश चौदह कुलकर या मनु हुए, जिनम सबप्रथम का नाम प्रतिभुति था ओर अन्तिम का नाभिराय । इन कुछकरो ने अपने-अपने समय की परिस्थियों में अपने कुछा या. जनों का सरक्षण, समाधान और मागदशन किया । सामाजिक जीवन प्रारम्भ हो रहा था । कमयुग सम्मुख था । यही से सनाम युग प्रारम्भ हुआ । अन्तिम कुलकर नामिराय के नाम पर ही इस महादंदा का सर्वप्राचीन ज्ञात नाम “अजनाम' प्रसिद्ध हुआ । वह अपनी चिरसयिनी मरुूदवी के साथ जिस स्थान मे मिवास करते थे वही कालान्तर से अयोध्या नगरो बसी । भारतवष की यह आधनगरों ज्ावेधिक भय




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