त्याग भूमि | Tyag Bhumi

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Tyag Bhumi  by हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyay

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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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त्यागभूमि | ही .ननथाााणय हि वि गोय पहले से ही गाँव में दो प्रकार के पेशे वाले थे । पक लो वे जिनकी रज़दूरी पत्येक घर से एक प्रकार से बैंधी हुईं थी, जैसे बदई, न्योहार, नाई, घोरबी इत्यादि । दूसरे दे जो अपने कर्य के अनुसार मज़डरी पाते थे जैसे सेली.जुलाहा आदि । यचपि इन दोनों प्रकार के पेशे वाले, गाँवों में अब भी चतमान है नधापे :नपर इस परिवितन का प्रभाव पढ़े बिना नहीं रहा है । लाहार-बढुई बढ़े एवं लोडार ये दोनों गाँद के अत्यन्त आवश्यक पेशेवर हैं । उनके बिना साँव की देनिक काम की चीजे भी ढीक नहीं रह सकतीं । इस कारण ये दोनों पेंशेवाले गाँवों में भय भी ज्यों-दे-त्यों चतंसान हैं । आजकल कृषि से सहायक औओजारों में लोहें की सामग्री की चृद्धि होने से लोहार का स्थान गाँव में और भी मज़बूत हो गया है, इस के साथ-साथ कड़ी की चर्खी पुव हल इस्यादि के उठते जाने से बद्ई की उपयंगिता में कुछ कमी भा गई हे । पथापि चह घरेलू उप ोंग की अन्य चीजें अब भी ज्यो-की-त्यों बनाना है और इन दोनो प्रकार के पेशेवाल्छों को इनकी मघी हुई वार्षिक सज़दूरी बहुत-कुठ ज्यों की-त्यों मिलती जाती है । इसके अतिरिक्त इन लोगों के लिए सगरों में «ं: पर्याप्त स्थान हैं। बढ्िकि नगरों में जाने से इनकी भवन्था गाँव की अपस्था से अच्छी दो जाती है । कुम्दार गाँय का सबसे गरीब पेदोवर कुम्हार हैं । इसकी पूँजी भी सबसे कम होती है । जय एल्युमिनियम तथा अन्य श्रातु के बर्तनों का प्रचार अधिक होने के कारण अच्छे श्रेणी के छिसान उन्हें ह' काम में लाने हैं, इस कारण मिट्टी के बतंनों की बिज्रा घट गई है । गरीबों में अब भी उसकी माँग ज्यों-की-त्यों हैं । दम लिए नगरों में भी कोई आशा- पूर्ण क्षेत्र नहीं हें । लरार गाँव के पेशोवाढों में औद्योगिक क्रान्ति का सबसे मधिक प्रभाव चसार के घने पर पड़ा दे । जबतक कच्चे चमड़े को खरीदने वाला कोई नहीं था सब तक सरे हुए १० [ आधिन जन के न भजन फल पा पगलिएगा गा ज्ञानवरों के ऊपर की खाल लोग चमारों को दे देखे थे । यह रिवाज प्राय: सब जगह प्रचलित था, किम्तु जवते करूकतता और बस्बई के व्यापारी करे चमड़े को सूल्य देकर खरीदने लगे हैं तबसे छोग चमारों को देने के बजाय उन्हें देखी आःि/ऊ पसन्द करते हैं । इस प्रकार गाँव के 'वमारों की यह परम्परागत आय बन्द होती जा रही है । ये छोग चमड़े की विदेशी वस्तुओं के मुकाबले अपनी चीज़ नहीं ठहर! सकते। जतः दिन दिन इनके उद्योग का ह्रास ही होता जा रहा है । कुढ लोग वर्तमान ढंग से स्थापित नगरों के चमदे के कारख्यानों में काम करने कगे हें । अधिकतर लोग 'वमदे को पेज्ञा छोड़कर खेतों अथवा अन्य स्थानों में मज़दूरी करने छगे हैं । तल उपयुक्त पेशेवरों के प्रकारों में तेछी वूसरे प्रकार का पंशेवर है । इनक घने पर विदेश में तेलहन भेजे जाने पथ नगरों में तेल निकालने की मिलें खुल जाने से उतना प्रभाव नहीं पडा हूं, जितना गाँवों में मिट्टी के सेठ के आय का । गाँवों में मिट्टी का सेल भा जाने से इनका काम बहुत घट गया हैं और ठेके पर काम करने वाछे पेरीवर होने के कारण इनकी अवस्था दिन-दिन स्राव होती जा रही है | रंगाइ का घन्घा गाँव में रेंगाई एक बहुत उन्नत घन्धां था किन्तु चिदेशी रंग का प्रवेश होने के कारण रँगरेज़ों का धम्घा दिन-दिन गिरता गया । लोग विदेशी रंग से सरलतापू्वक रैंग छेते है । यहाँतक कि रंगरेज़ों ने भी जड़ी-बूटी से रैँगी जानेवाली ग्रार्मणण पद्धति को छोड़ दिया । धीरे-धीरे वह पद्धति लुस- सी हो गई । मिछों में रैंगाई प्रारम्भ हो जाने से जुछाहे सीधे बाज़ार से रैंगा-रेंगाया सूत ख़रीदने लगे । इससे भी इस 'घन्घे को बढ़ा धक्का पहुँचा । १८७१५ हूं में पहल़े- पड़ल भारत में विदेशी रंग का प्रवेश हुआ आर २० वर्ष के था समय में भवांतू १८९० तक में रंगादि की देशी पद ति विष्कुक नष्ट हो गई । जुलाहे गाँव के जुलाद़ों पर विदेशी वख के भायात का प्रभाव ' प्रारम्भ में अधिक नहीं पड़ा । गाँव के अजधिकलर लोग मोड़ा




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