सम्यग्दर्शन की नई खोज | Samyagdarshan Ki Nai Khoj

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Samyagdarshan Ki Nai Khoj by स्वामी कर्मानन्द जी - Swami Karmanand Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पुरुषों के दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं श्रौर चारित्र भी नही हैं । बह तो केवल ज्ञायक (चैतन्य) शुद्ध स्वरूप हैं । झअभिप्राय यह है कि सम्यग्दशन श्रादि व्यवद्दारनय से प्रथक प्रथक कहें गये हैं । वास्तव में प्रथक प्रथक नही हैं । यही कारण है कि उचार्यो ने सम्पूर्ण गुणों को एक गुणात्मक तथा एक गुणा को सर्व- गुणात्मक कहा है । जब यह सिद्धान्त है तो स्पष्ट हो गया कि एक गुण की न्यूनता सम्पूर्ण गुणों में न्यूनता हैं. तथा एक गुण का घिकार सब गुर्णों में विकार करता हैं । इसी लिये दव्बसग्रह की टीका में श्राचार्यो ने सिद्धों के सम्यपग्दशन को परमतक्तायिक माना हैं । यदि न्ञायिक ण्क ही प्रकार का होता तो परमक्षायिक लिखना ही व्यथ था । अभिपाय यह है कि सम्पूण श्याचार्यों ने सम्यरदर्शन के लक्तणा तरवार्ध-श्रद्धान किये हैं । तथा पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय में श्र श्रद्धय प० टोडरमल्न जी ने इस में चिपरीतामिनिवशरहित शब्द संयुक्त करके सम्य- बन्च का लक्षण प्रिपरीताभिनिवेशर हित ततवार्धश्रद्धान सम्यग्दशेन विया है । श्रीपानू प० टोइस्मल जी लिखते हैं कि सम्यग्दर्शन में जो 'सम्प्रक' शब्द हे वह प्रशलावाचक है, श्रत: 'सम्यक' शब्द का श्रर्थ ही विपरीता- भिनिवेश रहित है । विपरीताभिनिवेश का श्र्थ है उलटे श्भिप्राय से रड़ित जो तच्यर्थश्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है । विपीराताभिनिवेश सात प्रकृतियों के उपशम व क्षय श्रादि से होता है, जैसा कि श्रीमान्‌ प० टोडरमल जी ने स्वयं लिखा है-- * मिथ्पात्व कर्मका उपशम अ दि होते विपरीतामिनिवेशका श्रभाव होय है ।'” मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ४8२ यही बात श्री जैसेनाचाय ने पचास्तिकाय की टीका में लिखी है, यथा योसी चिपरीतामिनिवेशपरिणाम, स दर्शनसोह: । पृ० 18२ अधीत--दर्शनमोहनीय का नाम विपरीताभिनिवेश है । १ शानाणुव रद




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