सम्यग्दर्शन की नई खोज | Samyagdarshan Ki Nai Khoj
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
84
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुरुषों के दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं श्रौर चारित्र भी नही हैं । बह
तो केवल ज्ञायक (चैतन्य) शुद्ध स्वरूप हैं ।
झअभिप्राय यह है कि सम्यग्दशन श्रादि व्यवद्दारनय से प्रथक प्रथक
कहें गये हैं । वास्तव में प्रथक प्रथक नही हैं । यही कारण है कि
उचार्यो ने सम्पूर्ण गुणों को एक गुणात्मक तथा एक गुणा को सर्व-
गुणात्मक कहा है । जब यह सिद्धान्त है तो स्पष्ट हो गया कि एक गुण की
न्यूनता सम्पूर्ण गुणों में न्यूनता हैं. तथा एक गुण का घिकार सब गुर्णों
में विकार करता हैं । इसी लिये दव्बसग्रह की टीका में श्राचार्यो ने
सिद्धों के सम्यपग्दशन को परमतक्तायिक माना हैं । यदि न्ञायिक ण्क ही
प्रकार का होता तो परमक्षायिक लिखना ही व्यथ था ।
अभिपाय यह है कि सम्पूण श्याचार्यों ने सम्यरदर्शन के लक्तणा
तरवार्ध-श्रद्धान किये हैं । तथा पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय में श्र श्रद्धय प०
टोडरमल्न जी ने इस में चिपरीतामिनिवशरहित शब्द संयुक्त करके सम्य-
बन्च का लक्षण प्रिपरीताभिनिवेशर हित ततवार्धश्रद्धान सम्यग्दशेन विया
है । श्रीपानू प० टोइस्मल जी लिखते हैं कि सम्यग्दर्शन में जो 'सम्प्रक'
शब्द हे वह प्रशलावाचक है, श्रत: 'सम्यक' शब्द का श्रर्थ ही विपरीता-
भिनिवेश रहित है । विपरीताभिनिवेश का श्र्थ है उलटे श्भिप्राय से
रड़ित जो तच्यर्थश्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है । विपीराताभिनिवेश
सात प्रकृतियों के उपशम व क्षय श्रादि से होता है, जैसा कि श्रीमान्
प० टोडरमल जी ने स्वयं लिखा है--
* मिथ्पात्व कर्मका उपशम अ दि होते विपरीतामिनिवेशका श्रभाव
होय है ।'” मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ४8२
यही बात श्री जैसेनाचाय ने पचास्तिकाय की टीका में लिखी है,
यथा योसी चिपरीतामिनिवेशपरिणाम, स दर्शनसोह: । पृ० 18२
अधीत--दर्शनमोहनीय का नाम विपरीताभिनिवेश है ।
१ शानाणुव
रद
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