अपने अपने रस्ते | Apane Apane Raste

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Apane Apane Raste by प्रेम सिन्हा - Prem Sinha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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11 --अच्छा, फिर देखा जायेगा ।--राजेन्द्र अपने कमरे की ओर घत्ता गया भर दीवान अपने छमरे की ओर । शाजेन्दर अपने कमरे मे आकर बढ गया । उसके सम्मुख आज दो नये परिचित ब्यक्ि थे । एक अमृत चटक-मटक से पूर्ण बातें करने में निपूण, और दूसरी वह । उसका नाम पूछना तो भूल गया । क्या नाम है उसवा, पर थी दितनी सरल, सुन्दर और साधारण । स्वाभाविक सौन्दयें की मूर्ति, बही भी ब्धिमता नहीं । उसकी आप पे काजल, क्पोलों पर रज और अधघरो पर लिपस्टिव इत्यादि बुछ भी नहीं । ऐसा लगता थां मानो उसे अत्यन्त सोच-विचार कर रचा है। परन्तु उस कामिनी का प्रभाव राजेन्द्र ने हुदप पर बदो पड़ा, यह राजेन्द्र स्वय हो समझने में असमर्थ था । वह मुन्दरता जानता था पर सौन्दयं बो देखकर अपना बनाने की भावना था जन्म उसवें हृदय में बदालित्‌ अभी सही हो पाया था । उसका शेशव अब भी उसमें घेय था । वह यौवन वी. साददता व चदलता रे पूर्ण रूप से परिचित न था । वह कुसुम को दिला देखकर प्रससत होता जानता था । सोडना नही । अमृत्र के शब्दी ने उसको प्रभावित किया । उसके सच्चे मित्र बनाने की भावना, उस पर तन-सन-धन त्याग व दलिदान बरने के विचार ने अमृत बो राजेर्द के हुदय में एक स्थान दे दिया था । अमृत क्तिना धनवान है दि गर्मी के समय से भी गम पतलून तथा रेशमी ब मीज पहनता है । उसने दोनएव बार पहले भी देखा, पर सदा एवं -से-एक अच्छे वस्प्र पहने देखा, पर उसमें विसो प्रशार बा गद नहीं था। उसने अपने थो वबार्यानय से टगे शीशे में देखा, उसके सामने सोदट उसका सौकर-सा सगता है 1 गह उसके वे ठाउदार बपडे और बहां उसकी यावी पेन्ट ? इनने पर भी वह उसयों मिद्र दनाते बी भावना रखता है। वारतय में उसका हुइय विशाल है! राजेन्द्र थी दिचारधघारा घड़ी थी ध्वनि में टूट शई । चपरासी ने प्रवेश बरये बह “सावन दुसादा है। राजन धट से उड़ा आर पास हो साटद गा ब्रा झए




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