महाकवि हरिऔध | Mahakabi Hariaudh

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Mahakabi Hariaudh by गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' - Girijadatt Shukl 'Girish'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उसकी सरसता छौर अल कारिक छुशलता का समुचित सत्कार करने फे लिए उत्सुक हैं तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि भविष्य मे' कोई कबि उपाध्याय जी की समता नहीं कर सकेगा ! ऐसा नहीं है, हमार तो हृढ विश्वास है. कि श्ागे चल कर हमारे साहित्यकारों में से बहुत से ऐसे भी निकलेंगे जो सबंतोमुखी प्रतिभा 'और व्योम-चुम्बिनी कल्पना से संसार के श्रेष्ठ कवियों की समता का मौर अपने उज्ज्वल मम्तकों पर बेधवाएँगे ।' हिन्दी-साहित्य के पूण॑ विकास का ्योतक “च्रियनप्रवास” कंदापि नहीं । वह तो केवल शताड्द्ियों की निशीथ-निशा के बाद उन्नतिउषा का दिव्य दूत है, और साहित्य-दृष्टि से इस महा- काव्य का इसी में महत्व है'। “प्रिय-प्रवास” अतुकांत छन्दों में हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है.। इसका अर्थ यह है. कि पुष्य कबि से लेकर उपाध्याय जी के पूर्व तक किसी भी हिन्दी-कथि ने इस विस्तार के साथ अतुकान्त कविंता नहीं रखी । ठुक की नकेल में बेंधी हुई हमारी कविता “कोमल कान्त पदावली” की परिक्रमा करती रही । इस श्स्वा- भाविक और हानिकारक दासत्व को तोड कर स्वन्छन्द' बिचरने का पहले पहल साहस उपाध्याय जी ने किया ।” इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध विद्वान श्रीमान काशीप्रसाद जायसवाल का कथन भी पाठकों के देखने योग्य है -- “'झन्त के झनुप्रास के बिना छन्दों में पण्डित अयोध्यासिंह उपा- ध्याय ने इसकी रचना की है । काव्य-विषय श्रीकृष्ण का श्रज से वियोग है । उपाध्याय जी ने; कुछ वषे हुए, एक नई शैली की हिन्दी 'अपने दिल में' पैदा की । “ठेठ हिन्दी का ठाट' और “झघखिला फल” इसके उदाहरण हैं। उपाध्याय जी की ठेठ आषा देखने में इतनी सरल कि उससे और सरल लिखना झसम्भव है, लिखने में इतनी कठिन कि दूसरे किसी ने 'झनुकरण की हिम्मत ही नहीं की । “पवही पण्डित अयोध्यासिह आज एक बिलकुल दसरी २तली में, और पद्य में, फिर एक नई चीज लेकर सामने आये हैं । आपको « साहित्य में नये राज्य स्थापित करने की छोड़ दूसरी बात पसन्द नहीं




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