तटवर्त सूत्र ४२७५ | Tatvrth Sutra Ac 4275

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Tatvrth Sutra Ac 4275 by सुखलाल जी संघवी - Sukhlalji Sanghavi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श् पिछले २१ ब्चों में प्रकाशित व निर्मित तत््वाथ सम्बन्धी साहित्य पका उल्लेख यहाँ इसलिए किया है कि २१ वर्षों के पहले जो तत्वाथ॑ के अध्ययन-अध्यापन का प्रचार था वह पिछले वर्षों में किस तरह और कितने परिमाण में बढ़ गया है और दिन प्रतिदिन उसके बढ़नेकी कितनी प्रबल -सम्मावना है । पिछले वर्षों के तत्त्वार्थ विषयक तीनो फिरको के परिशीलन में मेरे 'गुजराती विवेचन' का कितना हिस्सा है यह दिखाना मेरा काम नहीं । फिर भी में इतना तो कह सकता हूँ कि तोनों फिरको के योग्य स्अधिकारियों ने मेरे 'गुजराती विवेचन' को इतना अपनाया कि जो मेरी -कत्पना में भी न था । तत्त्वार्थ की प्रथम हिन्दी आवृत्ति के प्रकाशित होने के बाद तत्त्वार्थ सूत्र, उसका भाष्य, और वाचक उमास्वाति और तत्त्वाथं की अनेक टीकाएँ-इत्यादि विषयों के बारे में अनेक लेखकों के अनेक लेख निकले है”। परन्तु यहां पर मुझे श्रीमान्‌ नाथ्रामजों प्रेमी के लेख के बारे मे ही कुछ कहना है”। प्रेमोजी का “भारतीय विद्या'-सिंघी स्मारक अक में 'वाचक उमास्वति का सभाध्य तत््वाथ सूत्र और उनका. सप्रदाय' नामक लेख प्रसिद्ध हुआ है । उन्होंने दीषें ऊहापोह के बाद यह बतलाया है कि वाचक उमास्वाति बापनीय संघ के आचाय॑ थे । उनकी अनेक दलोले ऐसी है जो उनके मंतश्य को मानने के लिए आकृष्ट करती हे इसलिए उनके मन्तव्य को विज्ञेष परीक्षा करने के लिए सटीक भगवती आराधना 'का खास परिशीलन प ० श्री दलसुख मालवणियाते किया । उस परिशीरून के फल स्वछ्प जो नोधें उन्होने तेयार की उन पर उनके साथ मिलकर मेन भी विज्ार किया । विचार करते समय भगवती आराधना, उसकी *टिकाएँ बोर बुहत्कत्पभाष्य आदि ग्रन्थों का आवश्यक अवलोकन भी किया । जहाँ तक सभव था इस प्रइन पर मुक्तमन से विचार किया । आखिर में हम दोनो इस नतीजे पर पहुचे कि वाचक उमास्वाति यापनोय न थे, १. देखों अनेकान्त ब्ष हे. अंक १, ४, ११, १२; वर्ष ४ अंक १, ४, ६, ७, ८, ११, १२, वर्ष ५ अंक १-११, जैन सिद्धार्त भास्कर वर्ष < और ९ | जैनसत्यप्रकाश वर्ष ६ अंक ४. भारतीय-विद्या-सिंघी स्मारक अंक |




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