ठूँठा आम | Thoontha Aam

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Thoontha Aam by भगतशरण उपाध्याय - Bhagatsharn Upadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुना १७ करेखा । वसन्त निपट गया । पतमड़ आयी । माचे अप्रैठमें खोया, पर अप्रैल एक डग न सरके, जैसे अभिशप्त मन्त्रजड़ सप । से दिनम डर लगने कणा । हँ खग सकता हे डर दिनके सूनेम मी, लगता है, दमने खमा था । रूगता जैसे कुर्सियोंपर कोई बैठ उठेगा, जैसे उनकी जड़ता सचेत हो उठेगी। और यह परग जिसपर सोता हूँ, दिनमें पड़ा रहता हूँ, बेबस । और चुपचाप इसके उचे सिरहाने-पेतानेपर नज़र डाठता हूँ, बेचेनीमें कभी पेताने सिर करता हूँ, कभी सिरहाने । पर वह डर जैसे घेरे-घेरे रहता है । ऊँचाई दोनों ओरकी बराबर है, काठे आबनूसकी चिकनाहट स्याहीके साथ अपना डरावना साया डाल देती है । ऊगता है, पलंगपर नहीं ताबूतमें सोया हूँ । आबनूसी ठोस सपाट सिरहाना-पैताना ताबूतका ही असर पैदा करते हैं । तूतनख़ामन जैसे ज़िन्दा पड़ा है, ज़िन्दा दरशोर, इस स्याही-पुते पढंगकी गहरी चहारदीवारीमें क्रैद; जिसकी ऊंची छतको आबनूसके ही खम्भे उठाये हुए हैं। क़ाहिराके अजायबघरकी सहसा याद आ जाती है उस ठोस सोने, ठोस लकड़ीके कमरानुमा ताबूतकी, और तूतनखां- मनकी “ममी' पर उसकी सोलह सालकी प्यारी सुन्दर बीबीके छोड़े हारकी, जिसके पूरु कुम्हला गये थे । और यहाँ भी तो सामने उस तसवीरपर एक गजरा पड़ा है, जिसके पूरु कुम्हला गये दै, विचणे हो गये हे | ओर ये भाड़-फ़ानुस, वेशक्रीमती श्ञाइ-फानूस, जो एक गुज़री हुई दुनियाकी याद दिलाते हैं । उस दुनियाके अँधेरेको इनकी हज़ार-हज़ार शमाएं भी दूर न कर पाती थीं, पर जिनपर




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