विश्वभारती पत्रिका भाग - 3 | Vishvabharati Patrika Bhag - 3

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Vishvabharati Patrika Bhag - 3  by हजारी प्रसाद द्विवेदी - Hazari Prasad Dwivedi

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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।

द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घोड़ा रवीन्द्रनाथ ठाकुर सष्टि का काम प्रायः समाप्त होने पर जब छुट्टी का घंटा बजने आया, तभी ब्रह्मा के मस्तिष्क में एक भावोदय हुआ । भाण्डारी को बुलाकर बोले, “अजी भाण्डारी, मेरे कारखाने में थोड़े-से पंचभूत लाकर तो जटाभो ; एक ओर नूतन प्राणी कौ सष्टि करू गा ।” भाण्डारी नै हाथ जोड़कर निवेदन क्रिया, ^प्रितामह, अपने जिस समय -परम्‌ उत्साइपूबेक टाथी गदे, तिमि गदे, अजगर-सपं गदे, सिंद-व्याघ्र गदे, उस समय खये कै हिसाब कौ ओर तनिक भी ख्याल नहीं किया ।. जो कुछ भारी और कड़ी जाति के भूत हमारे भाण्डार में थे, वे सब प्रायः चुकने आए! क्षिति, अप; तेज सभी ते आ लगे हैं। बाक़ी बचे हुओं में रहे हैं मरुत-व्योम,--सो चाहे जितने ले लीजिए ।” ्‌ चतुमुख कुच देर अपनी चार जोड़ी मूछों पर ताव देते हुए सोचकर बोले, “अच्छी बात है, भाण्डार में जो है चद्दी ले आओ, देखा जाय ।” इस बार प्राणी की रचना करते समय ब्रह्मा ने क्षिति-भप्‌-तेज को खूब संभालकर खच किया ।. उसे न तो दिए सींग और न दिए नख, और जो दांत दिए सो उनसे चबाने का काम तो हो सकता था, काटने का नहीं । तेज के भाण्ड से अवद्य कुछ खये किय, सो इससे यद प्राणी युद्धक्षेत्र के किसी-किसी काम के उपयुक्त बन पढ़ा, किंतु उसे खुद लड़ाई का शौक़ नहीं रहा ।. यही प्राणी है घोड़ा यह अंडे नहीं देता तब भी बाज़ार में इसके अंडे को लेकर रोर है, भतएव ईते द्विज भी कदा जा सकता है ।* सोजो दहो, सिक्ता ने इसकी गढन मे मरत्‌ ओर व्योम जते टंस-दंसकर भर दिए । नतीजा यह हुआ कि इसका मन लगभग सोलहों आने मुक्ति की तरफ़ दौड़ पड़ा। यह हवा से भी आगे भागना चाहता है, असीम आकाश को पार कर जाने की बाज़ी लगा बेठता है। बाक़ी सभी प्र।णी कारण उपस्थित होने पर दौड़ते हैं, किंतु यह दौढ़ता है बिना कारण ;--मानों उसे खयं अपने ही से दूर भागने का कोई शौक्र दो। कुछ छीनना नहीं चाहता; मौडना नदीं + चलती बंगला में अलीक वस्तु के लिये “घोड़े का अंडा”-कथन प्रचलित है ।




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