भरतेश - वैभव भाग - 2 | Bharatesh Vaibhav Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(११) उस समब श्षल्लाटयकी शोभा कुछ और थी | अनेक शब वहापर न्यवस्थित रूपसे रखे हुए भे । उनकी बलि, पुष्प चंदन इत्यादिक पूजाओंसि वहापर वीर रस बराबर टक रहा था । पंचवर्णके अनेक भक्ष्यवि्षेव व अनेक नैवेद्य विशेषोंसि शख्र पूजा ोरही थी हसी प्रकार होम भी हरदा था जिसमे अनेक आश्य भन्न आदिकी आहुति भी दी जरदी जी] धूपसे धूम निगीमन, दीपे प्रज्यर्ति ज्वा व अनेक वर्णके पुष्प अनेकं फर आदि विषयेति वहा अनुपम शोमा हरदी भी । माले, खञ्ज, कठारो, गदा, आदि अनेक अज्ञ शलोको देखने पर एकदम राक्षस या मार्कि मंदिरिका मयैकर स्मरण आता आ । सङ्ग, गदा व चेग्रहास्त जादिक वण्डरन्नोको जिसप्रकार्‌ हापर रखा गया या उससे सपं मण्डलक ही कमी कमी स्मरण होता था | रतिद्ास आदि कितेन ही आयुष वहापर आश्रिको ही वमन कररहे थे। सानेदक नामक एक सङ्ग [असि ] रन्न तो इसप्रकार माठम हो रहा था कि कब तो चक्रवर्ती दिखिजय के लिये प्रयाण करगे, कन तो हमे शरू वॉको भक्षण करनेके ठिये अवसर मिरेगा, इस प्रकार जीमको बार निकालकर प्रतीक्षा ही कर रहा है । कालकी डाढके समान अनेक ल्के बीन सूर्यके समान तेज पुंज चक्ररतन बहापर पक्षाञ्चित होरहा है । चक्रवर्तनि खड। होकर उसे जरादेला। चक्रवर्तीसे मंत्रीने प्रार्थनाकी कि स्वामिन्‌ ] भाजतक इस चक्ररलकी महविमवसे पूजा दोगरई । करू वीरलम है, योग्य मुद्स्‍ल है । इसलिये दिग्विजयके लिये अपन प्रस्थान करें । इस वचनको सुनकर चक्रवर्तीने उस चक्ररत्नपर एक कमल ' पुष्पको रखा । उसे देखकर मंत्रीने कहा कि राजनू ! सूर्यको कमर मिलगया यही तुम्हारे लिये एक झुम शकुन है । चक्रवर्ती उस झखालयते लीटे । मत्रीको उन्दोंने भेजकर अपनी ` मह्यै पेन किमा | इति नवरात्रि संधि,




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