संत समागम भाग २ | 1410 Sant Samgam Voll-2

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1410 Sant Samgam Voll-2 by मदनमोहन वर्मा - Madanmohan Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) उपभोग करते है, अथवा यों कदो किं भविष्य की अशात्तव करनी पढ़ती है कि जव दम संगठन से उत्पन्न शोनेवाले परिवसैनक्षीत रस का पान करते है । जो नित्य श्चानन्द्‌ केवर त्याग से अष्ठ होता है, उसके छिये भविष्य की श्राणा करना एकमात्र प्रमाद के श्वतिरिक्त और कुछ भथे नहीं रखता । हम पूणं स्वतन्त्र होने के छिये परतन्त्र नहीं हैं, यदद दमारे निज स्वरूप ( जो सर्वकाढ में है ) की महिमा है कि बेचारी परतन्त्रता को भी सान्तिध्यमात्र से सत्ता मिल जाती है | यह नियम है कि जिसकी सत्ता भास होने लगती है, उसमें प्रियता उत्पन्न हो जाती है, प्रियता श्राते ही झस्वाभाविक परिवतेन- शील. जीवन में आासक्ति हो जाती है, वस यद्दी परतन्त्रता की सन्ता है मोर इछ नदीं । यदि हम खयं अपने उपर अपनी कृपा करें, तो निर्जीव परतन्त्रता स्वतन्त्रता में घिलीन दो सकती है । इस सबसे बढ़ी भूल यही करते हैं कि जो हमसे भिन्त है, उनकी छपा की प्रतीक्षा करते रहते हैं । ला जिन वेचारो का जीवन केवल हमारी स्वीकृति के याधार पर जीवित है उने हमारे ऊपर कृपा करने की शक्ति कहाँ ? हम अपनी की हुई. स्वीकृति को स्वयं स्वत्त्रतापूवेंक मिटा सकते हैं । सभी परि- ब्तेनशीछ क्रियाओं का जन्म हमारी अस्वाभाविक काल्पतिक स्वीकृति के झाधार पर होता है । अतः मानी हई अहता




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