संत समागम भाग २ | 1410 Sant Samgam Voll-2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
372
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ६ )
उपभोग करते है, अथवा यों कदो किं भविष्य की अशात्तव
करनी पढ़ती है कि जव दम संगठन से उत्पन्न शोनेवाले
परिवसैनक्षीत रस का पान करते है । जो नित्य श्चानन्द् केवर
त्याग से अष्ठ होता है, उसके छिये भविष्य की श्राणा
करना एकमात्र प्रमाद के श्वतिरिक्त और कुछ भथे नहीं
रखता ।
हम पूणं स्वतन्त्र होने के छिये परतन्त्र नहीं हैं, यदद दमारे
निज स्वरूप ( जो सर्वकाढ में है ) की महिमा है कि बेचारी
परतन्त्रता को भी सान्तिध्यमात्र से सत्ता मिल जाती है | यह
नियम है कि जिसकी सत्ता भास होने लगती है, उसमें प्रियता
उत्पन्न हो जाती है, प्रियता श्राते ही झस्वाभाविक परिवतेन-
शील. जीवन में आासक्ति हो जाती है, वस यद्दी परतन्त्रता की
सन्ता है मोर इछ नदीं । यदि हम खयं अपने उपर अपनी
कृपा करें, तो निर्जीव परतन्त्रता स्वतन्त्रता में घिलीन दो
सकती है ।
इस सबसे बढ़ी भूल यही करते हैं कि जो हमसे भिन्त है,
उनकी छपा की प्रतीक्षा करते रहते हैं । ला जिन वेचारो का
जीवन केवल हमारी स्वीकृति के याधार पर जीवित है उने
हमारे ऊपर कृपा करने की शक्ति कहाँ ? हम अपनी की हुई.
स्वीकृति को स्वयं स्वत्त्रतापूवेंक मिटा सकते हैं । सभी परि-
ब्तेनशीछ क्रियाओं का जन्म हमारी अस्वाभाविक काल्पतिक
स्वीकृति के झाधार पर होता है । अतः मानी हई अहता
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