रेखाएँ बोल उठीं | Rekhaen Bol Uthin

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Rekhaen Bol Uthin  by देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आमुख एर बार एक कहानी -लेखक ने बताया था कि वह जब भी कोई नई कहानी लिखने बेठता है तो नई कमीज़ श्रौर नया पाजामा पहनना पसन्द करता है । कोई उसके लिए पाप पढ़ी छोटी तिपाई पर खाय रख जाय । वस, इतने से ही उसे प्रेरणा मिल जाती है श्रौर कई बार तो उसकी लेखनी इतने वेग से चलती है कि वह यह भी भूल जाता हे कि चाय कब श्राई । यह बात कहानी-लेखक के लिए जितनी सत्य है, उससे कहीं श्रधिक एक निवन्धकार के लिए भी सत्य है, षर्योकि न तो सदा एक श्रच्छी कहानी का निर्माण हो सकता है श्रौर न किसी भी समय बेढकर श्रच्छा निबन्ध लिखा जा सकता है । सृजन कै क्षण हमेशा नहीं श्राते । इनकी बाट जोहनी पडती है, श्रौर जव ये षण श्राते है तो बता कर नहीं श्राते । हाँ, क्या बुरा हे यदि लेखक इनकी प्रतीक्षा में नई कमीज़ श्रौर लया पाजामा पहन कर बेठ जाय । इतना तो स्पष्ट है कि कोई भी चीज़ लिखने बेठने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि का पूरा मनन होना आवश्यक है । श्रध्ययन के बिना तो ग्र बात नहीं बनती । जिस भी विषय पर लेखनी उठ उसके चतुर्दिक लेखक की श्राँख घूम जाय, श्र उसके मन के वातायन खुले रहें जिससे बाहर




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