उत्तराध्ययन सूत्र | Uttaradhyayan Sutra

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Uttaradhyayan Sutra by साध्वी चंदना - Sadhvi Chandana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ विनय-श्रत आर्यं सुधर्मा का आर्य जम्बू को विनयश्न्‌ त का प्रतिबोध ! मुषित का प्रथम चरण है--'विनय।' पावाकी अन्तिम धर्मसभा मे, आर्यं सुधर्मां स्वामी ते भगवान्‌ महावीर मे, विनय कै सम्बन्ध मेँ जो सुना मौर जो समभा, उसे अपने प्रिय . शिष्य जम्बू को समाया है । यद्यपि सम्पूर्ण विनय के प्रकरण में आर्य सुधर्मा ने विनय की परि- भाषा नहीं दी है, किन्तु विनयी और अविनयी के व्यवहार और उनके परिणामकी वि. पे चर्चा की है और उस्तके आधार पर विनय भौर अविनय की परिभाषा स्वतः स्पष्ट हो जाती है । वस्तुतः विनय भौर अविनय अन्तरंग भाव-जगत्‌ की सुक्ष्म अवस्थाएँ हैं। विनयी और अविनयी के व्यवहार की व्याख्या हो सकती है; किन्तु विनय और अविनय की शब्दो में व्याख्या असंभव है,फिर भी दोनों के व्यवहार और परिणाम को समभक्ाकर विनय को प्रतिष्ठित किया जा सकता है । और व्यक्ति का वाह्य व्यवहार भी तो अन्ततः अन्तरंग भावो का प्रतिविम्ब ही होता है । उस पर से अन्तरेग स्थिति को समने के कुं संकेत भिल सकते हैं । यही प्रयास इस प्रकरण में है । ` प्रस्तुत विनय्रूत अध्ययन में बताया गया हैं कि विनयी का चित्त जहंकारघून्य होता है--सरल, निर्दोप, विनख्र और अनात्रह्ी होता है 1 . अतः वह्‌ परम ज्ञान की उपलब्धि में सक्षम होता है । इसके विपरीत उविनयी अहंकारी होता है, कठोर होता है, हिसक होता है,विद्रोही होता है । न




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