गर्जन १९४१ | Garjan(1941)

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Garjan(1941) by भगवत शरण उपाध्याय - Bhagwat Sharan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गजेन 4 शूलपाणि की एक प्रेयसी थी यवनी कीटा, जिसका नाम उसने बदलकर उसके रूप के अनुरूप 'फेनका' रख दिया था । फेनका वदेरु क एक पोतस्वामी की कन्या थी जिसे उसने उसके पिता से छीन लिया था । फेनका युषती थी, सन्दरी, शल्हङ़ । उसने समुद्रौ को पार किया था पिता के पोतो में और विक्रान्त जलदस्यता देखी थी दक्षिण महासागर के वत्त पर । परन्तु अन्तिम संघर्ष में वह शूलपाणि के शौर्य पर रीक गदं थी दुद्धषं साम- रिक यवनों की विशाल नौका पर जब शुल्षपाणि की हिंखिका चढ़ दौडी थी ओर जब स्वयं वह्‌ कृष्णएकाय दुर्दम्य दस्यु एक करसे कीटा को घ्लीन दूसरे से असि-सच्चालन करने लगा था) कीटा स्वयं उसकी शक्ति पर आसक्तं दो यवनो के पराव की कामना करने लगी थी । जब उसके पित्ता का पोत आहतो को लिये धीरे-धीरे सागर के उद्र में बैठ चला, उसने दुःखभरी साँस ली, फिर पना सुख उसने द्स्युरान् के वक्ष में छिपा लिया । शूल्पाणि कै घने सोरपंखों ने क्रीटा के पिंगल केशों में अपनी नील्न-स्वर्दिम राभा डाली | फेनका शूलपाणि की सखीः थी, प्रेयसी दही नदीं। उसमे भी शूलपाणि की भाँति ही एक दुदेमनीय शक्ति थीं। समुद्र की लहरियो से उसका सख्य था । साहस की वह्‌ मूर्तिं थी । जव से उसका पिता बावेरु के नगरों को छोड़ सामुद्रिक पोतों का स्वामी वणिकू बना तभी से फेनका ने भी सागर की. लहरों से बन्धुत्व किया) अब जब से वह शूलपाणि-से शक्तिशाली जलदस्य की रूपगभां भ्रणयिनी बनी थी, स्वयं उसके पोतसमूह का सद्चालन करती, उसके श्र क्रमणो म योग देती) धीरे-धीरे युग बीत गया । शूलपाणि वृद्ध हो चला, फेनका प्रौढ़ा दो चली । 'ब फेनका को धीरे-धीरे सागर से:-अरुचि हो




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