वेदांत-सिद्धांत और व्यवहार | Vedaant Sidhdaant Aur Vyavahaar
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
41
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वेदान्त--सिद्धान्त ओर व्यवहार
का संचालन करते हैं, किन्तु हमारा मन ही बाह्य विद में घटने वाली
घटनाओं की दांखला को एक विशिष्ट पद्धति द्वारा श्रेणीबद्ध करता है।
क्या ये प्राकृतिक नियम इस विशिष्ट मानसिक पदति के अतिरिक्त ओरं
कुछ हैं ? वेदान्त के अनुसार यह विश्व एक सम्बद्ध समवाय है । बाह्य
जगत् से प्रारम्भ कर आप आन्तरिक में तथा आन्तरिक से प्रारम्भ कर
बाहा में पहुँच जाएँगे । 'सच्चिदानन्द्रूपी अनन्त महासागर से यह विश्व
प्रकट हआ है ओर पनः उसीमें व्िटीन हो नायगा | अनन्तकार से
यह विद क्रमविकसित (101४1118) ओर् क्रमसंकुचित (17001४17)
होता आरहा है । इसे हम एक इकाई ( 0776) के रूप में देखें तो हमें
प्रतीत होगा कि इसमें न प्चिर्तन हो सकता है, न गति । यह पूर्ण है और
सवंत्रिघि तथाकथित परिवर्तन इसी में विद्यमान हैं--फिर भी यह इकाई ज्यों
की त्यों बनी रहती है ॥ परिवतन और गति तभी सम्भव हैं जब तुलना का
भाव हो,पर तुढना दो या अधिक वस्तुओं में ही हो सकती है । पुनश्च यह
ऋमविकास और ्रमसंकोच, यह अभिव्यक्ति और अव्यक्त या बीजरूप में
पुनरावतन---अइस क्रम का किसी समयविदोष मे प्रारम्भ नहीं हो सकता ।
इसका प्रारम्भ स्वीकार करने का अथ होगा सट्रिकर्ता का प्रारम्भ
स्वीकार करना ओर इतना ही नही, यह भी कि वह सष्टिकर्ता निर्देय
ओर पक्षपाती है जिसने प्रारम्भ में ह्य इन विभिन्नता्ओ को जन्म दिया
है। फिर एक और कठिनाई उत्पन हो सकती है.: सृष्टिकर्ता अर्थात्
प्रथम-कारण सृष्टि द्वारा सम्पूर्ण या असम्पूर्ण बनाया गया होगा | अतः
बेदान्त के अनुसार सृष्टि भी उतनी ही नित्य है जितना स्त्य सष्टिकर्ता;
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