नमो पुरीसवरगंधहत्थीण | Namo Purisavaragadhahatthina

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Namo Purisavaragadhahatthina  by धर्मचन्द जैन - Dharmachand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हस्ती तो स्वय ही जान. एवं क्रिया के सगम हैं ।* इतना सब होतें हुए भी गुरुदेव अत्यन्त सरल एवं विनम्रता की मूर्ति थे । आपके उपदेशो का श्रोताओं पर यथेष्ट प्रभाव पड़ता था । कारण स्पष्ट था । वे पहले करते थे, जीवन में उतारते थे ओर फिर कहते थे । गुरुदेव ने अपने सयम-काल मे विषम से विषम परिस्थितियों को भी धैर्यपूर्वक सहा । कितने ही सत विदा हो गये। कितने ही सतो की समाधि में, उनके सथारे मे आपने साज्‌ दिया। जिस समय मैंने दीक्षा ली थी, उस समय तक का सम्प्रदाय मे कोई भी सत आज विद्यमान नहीं है। बाबाजी श्री सुजानमल जी मसा, स्वामीजी श्री अपरचन्दजी मसा आदि अनेक सतत गए पर उस वक्त भी गुरुदेव विचलित नहीं हुए। बड़े आत्म-विश्वास से सयम-जगत्‌ मे रमण करते रहे । उनके जीवन का एक-एक गुण उनके भक्तो के जीवन मे मूर्विमत हो, तभी उनका || स्मरण सफल होगा । | | ज्ञान ओर क्रिया मे समन्वय जिस महापुरुष ने किया था वह महापुरुष ससार से विदा हो गया, परन्तु अन्तिम समय मे भी समाधिमरण के साथ एक कीर्तिमान स्थापित किया । जन-जन को बता दिया कि मरण हो तो ऐसा हो महोत्सव की तरह । वैशाख शुक्ला अष्टमी के दिन रवि पुष्य नक्षत्र मे नश्वर देह का परित्याग कर इसु ससार से विदा हो गये, परन्तु बहुत बड़ी प्रेरणा दे गये कि आप लोग भी इस तरह का जीवन जीये जिससे अन्तिम समय || शान्तिपूर्वक पण्डित मरण के साथ ययँ से विदा हो सके । लबे समय का वह अभ्यास ही उनको समाधिमरण की || || तरफ प्रेरित कर गया । सामायिक ओर स्वाध्याय का सदेश देने वाले वे स्वय ही सामायिकमय हो गये, उनके भीतर || सामायिक उतर गयी । एक तो वे है जो सामायिक करते है तथा एक वे हैँ जिनके जीवन मे सामायिक होती हे || || करने मे और होने में बड़ा अन्तर है। करना तो क्रिया है, होना आत्म-साक्षात्कार है। अगर आत्मा के अन्दर | सामायिक हो गयी तो फिर करना क्या बचा ? उन्होने इस तरह से केवल सामायिक ही नहीं की, अपने जीवन के || अन्दर सामायिक को उतार कर लोगो की धारणा को बदल दिया । लम्बे समय के बाद मे किसी आचार्य को ऐसा | || समाधिमरण हुआ तो लोग कहने लगे कि आचार्य को समाधि मरण होता ही नही है, क्योकि वे ज्ञयो मे फसे रहते || है, चतुर्विध सघ की व्यवस्था के अन्दर इतने उलञ्चे रहते है कि उनके मन मे चिन्ता बनी रहती है, जिसके कारण वे अन्तिम समय समाधि-मरण को प्राप्त नही कर पाते हैँ । किन्तु व्यक्ति क्या नही कर सकता है > चाहना के अनुसार | अगर आचरण है, जीवन व्यवहार है, आत्मा मे इस तरह की सच्ची लगन है तो मनुष्य सब कर सकता है । | अपने ७१ वर्षं के सयम काल मे आचार्य भगवन्त ने आचार्य, उपाध्याय तथा सत पदो का क्रियापूर्वक निर्वहन किया । ६१ वर्ष आचार्य रहते हुये भी अपने को सदा सघ-सेवक शोभा शिष्य हस्ती ही माना | गुरुदेव द्वारा रचित स्तवन-भजन आत्मा को ऊपर उठाने वाले है । जब आचार्य भगवन्त ने निमाज मे सथारा | मरहण कर लिया था, तब उन्हे “मेरे अन्तर भया प्रकाश, नही मुझे किसी की आस” तथा “मै हू उस नगरी का भूप जहाँ नही होती छाया धूप”-जैसे भजन सुनाये गये । सुनाते-सुनाते ही सत भाव विभोर हो उठते थे । | वे केवल उपदेशक ही नही, उपदेशो को आत्मसात्‌ करने वाले थे । हम भी कभी-कभी सोचते है कि हमने कभी किसी केवलौ को नही देखा । गणधरो को नही देखापर हमे सतोष है कि हमने आचार्य भगवन्त को देखा, हम भाग्यशाली है कि हमे उनका सानिध्य मिला ।




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