राजस्थान का जैन साहित्य | Rajastan Ka Jain Sahity
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
537
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about अगरचन्द्र नाहटा - Agarchandra Nahta
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)9
{3} अन द्तंन ने श्रारम-विकास भ्र्थात् मुक्ति को सम्प्रदाय के साथ नही बल्कि धर्मे
के साथ जोड़ा है। महावीर ने कहा-किसी भी परम्परा या सम्प्रदाय में दीक्षित, किसी भी लिंग
में स्त्री हो या पुरुष, किसी भी वेश में साधु हो या गृहस्य, व्यक्ति भ्रपना पूर्णं विकास कर सकता
है। उपतके लिये यह श्रावश्यक नही कि वह महावीर द्वारा स्थापित धर्म-संघ में ही दीक्षित हो।
महावीर ने श्रश्नुत्वा केवली को जिसने कभी भी धर्म को सुना भी नही, परन्तु चित्त की निर्मलता के
कारण, केवल ज्ञान की कक्षा तक पहुंचाया है। पर्दधह प्रकार के सिद्धो मे भन्य लिंग श्रौर प्रत्येक
बुद्ध सिद्धो को जो किसी सम्प्रदाय या धामिक परम्परा से प्रेरित होकर नहीं; बल्कि भ्रपने ज्ञान से
प्रबुद्ध होते हैं, सम्मिलित कर महावीर ने साम्प्रदायिकता की निस्सारता सिद्ध कर दी है।
बस्वुत. धर्म निरपेक्षता का श्रर्थ धर्म के सत्य से साक्षात्कार करने की तटस्थ वृत्ति से है।
निरपेक्षता भर्यात् भ्रपने लगाव प्रौर दूसरो के द्वेष भाव के प्रे रहने की स्थिति। इसी श्रथं मे
जैन दशन मे धर्म की विवेचना करते हुए वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। जव महावीरसे
पूछा गया कि झाप जिसे नित्य, ध्रव श्रौर शाग्वत धमं कहते है वह कौनसा दै ? तब उन्होने कहा--
किसी प्राणी को मत मारो, उपद्रव मत करो, किसी को परिताप ने दो और ने किसी की
स्वतन्त्रता का आणहरण करो! दस दष्टिसे जैनधर्म के तत्व प्रकारान्तरं से जनतान्तिक
सामाजिक चेतना के हो तत्व है।
उपर्युक्त विवेचन स यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन जनतान्तिकं साभाजिक चेतना से प्रारम्भ
सही भ्रपने तत्कालीन सदर्मो मे मम्पुक्त रहा है । उसकी दृष्टि जनतन्त्रात्मक परिवेश में राज-
नैतिक क्षितिज तक ही सीमित नही रही है। उसने स्वतन्त्रता प्रौर समानता जसे जनतान्त्रिक
मन्यो को नोकभूमि मे प्रतिष्ठित करने की वृष्टि से श्रहिसा, अनेकान्त ग्रौर श्रपरिग्रहं जैसे मूल्यवान
{तर दिये हैं श्रोर बैयक्तिक तथा सामाजिक धरातल पर धर्मसिद्धातों कीं मनोविज्ञान श्रौर
समाजविज्ञान सम्मत व्यवस्था दी है। इससे निश्चय हीं सामाजिक श्रौर श्राथिक क्षेत्र में
सास्कृतिक स्वराज्य स्थापित करने की दिशा मिलती है।
मास्कृतिक समन्वय ग्रार भावनात्मक एकता
जैन धर्म ने सास्कृतिक समन्वय श्रीर एकता की भावना को भी बलवती बनाया । यह
समन्वय विचार ग्रौरं श्राचार दोनो क्षेत्रो में देखने को मिनता है । विचार-समन्वय के लिये श्रनेकान्त
दर्शन की देन श्रत्यन्त महत्वपूणं है। भगवान् महावीर ने इस दशंन की मूल भावना का विश्लेषण करते
हुए सासारिक प्राणियों को बोध दिया--किसी बात को, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक
ही तरह उस पर विचार मत करो! तुम जो कहते हो वह सच होंगा पर दूसरे जा कहते हैं वह
भी सच हो सकता है। इसलिये सुनते ही भडको मत, वक्ता के दृष्टिकोण मे विचार करों ।
श्राज ससार मे जो तनाव श्रौर दन्द है वह् दूसरों के दृष्टिकोण को न समक्षन या विपर्यय
रूप से समझने के कारण है। अ्रगर श्रनेकान्तवाद के श्रालोक मे सभी व्यक्ति भौर राष्ट्र
विन्तन करने लग जाये तो झगड़े की जड ही न रहे। मानव-सस्कृति के रक्षण श्रौर प्रसार में
जैन धर्म की यह देन श्रत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
आचार-समन्वय की दिशा में मुनि-धर्म भौर गृहस्य धमं की व्यवस्था दी है। प्रवृति
भ्ौर निवृत्ति का सामजस्य किया गया है। शान भौर क्रिया का, स्वाध्याय श्रौर सामायिक का
सन्तुलनं इसीलिये श्रावश्यके माना यया है 1 ११ के लिये महाब्रतों के परिपालन का विधान
है) वहां सर्वंथा-्रकारेण हिसा, भूढ. चोरी, च झौर परिग्रह के त्याग की बात कही गई है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...