बातचीत : भक्ति और पूजा | Baatcheet Bhakti Aur Pooja

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वि.: भगवान्‌ को हम देखे, विना-बोले वे मन्दिर में बैठे है, उनके पास कोई परिग्रह नही है । वे क्या कर रहे है ? वे अपनी आत्मा मे मग्र है । उन्होंने चलना छोड दिया, बोलना छोड दिया, वे तो अपनी आत्मा में डूबे हैं । इस तरह वीतरागता की मूर्ति को देखने के बाद ससार की असारता के भाव आपोआप उत्पन्न होने लगते है, फिर वह स्वय मे सुस्थिर होने के प्रयत्न भी करता है | ने.. क्या जैन दर्शन से भक्ति की कोई संगति है ? वि.: दर्शनशास्त्र वडा शुष्क विषय है । शुष्क मै इसलिए कह रहा हूँ कि वह अत्यन्त वुद्धिमान्‌ वर्ग के लिए है । उसमे बारीक-से-बारीक चीर-फाड की गयी है। जैसे, कोई गहन शल्य (ऑपरेशन) करता है, तो वह आम डॉक्टर नही कर सकता, उसके लिए विशेषज्ञ जरूरी है, इसी तरह दर्शनशास्त्र विशिष्ट छोगो के लिए है । दर्शनशास्त्र के प्रणेता आचार्य समन्तभद्र भी भक्ति- मार्ग पर उतर आये | उनके जितने भी ग्रन्थ है, वे प्राय भक्तिपरक है । जैसे, स्वयम्भूस्तोत्र है, उसमें भगवान्‌ की भक्ति के साथ-साथ तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन भी है, इस तथ्य को गहराई में समझना जसी है कि भक्ति का अङ्कुर है, वही मुक्ति के लिए बीज-रूप है | ने.: यही अकुर धीरे-धीरे वृक्ष बनता है। वि. जैसे बीज से वृक्ष होता है, अकुर से वृक्ष होता है, वैसे ही भक्ति एक प्रारभिक प्रक्रिया है, एक विधि है, मोक्ष-मार्ग तक ले जाने वाली, ससार-सागर को पार कराने वाली एक समर्थ नौका है | जैसे इस नौका से किनारे पहुँचा जा सकता है, वैसे ही धीरे-धीरे मोक्ष तक पहुँचे के लिए भक्ति भी बहुत बडा सहारा दै । ने.: पूजा का जो रूप आज प्रचलित है, क्या उसमे कोई परिवर्तन या परिवर्धन की गुजाइश है ? वि.: वैसे देखा जाए, तो पूजा का जो रूप आज प्रचलित है, उसमे ७०-७५ प्रतिशत तो परिशुद्ध ही है, फिर भी अडोस-पडोस के कारण कुछ दोष आ गये है । भक्तो ने भक्ति के अतिरेक मे जो जोड दिया है, उसके कारण उसमे कुछ विकृति जरूर आयी है । हम इस विकृति को युक्ति- प्रयुक्ति, या आगम-त्ञान के द्वारा परिमार्जित करके छोडते भी जा रहे है । सच तो यह है कि भगवान्‌ की जो पूजा है, वह भाव-प्रधान है, द्रव्यपूजा तो माध्यम है, मात्र साधन को पकड वैठे है, इसलिए हमे सफलता नही मिल रही है । अष्टद्रव्य है, आसती है, स्तुति- स्तोत्र है, अप्टक के पद है, ये सब साधन है, साध्य तो भावपूजा है, पवित्र भावना और श्रद्धा हे, चित्त की एकाग्रता है। ने.: मूल हो भावपूजा ही है। वि.: वाम्तव मे, भावपूजा मे मग्र होने पर ही आनन्द आता है, द्रव्यपूजा में नहीं | ९ ^ वातचीत . भक्ति और पूजा




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