माटीमटाल | Matimataal

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Matimataal  by गोपीनाथ महांती - Gopinath Mahanti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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औरतों ने एक-दूसरे की ओर देखा । कोई नही निकली 1 इसके बाद देखा, अकेली आगे बढ़ रही है छवि । साँस रोके सब उस मूर्ति की मीर देखते रहे । सबके चेहरे पर भय की छाया । मानो वह किसी जीवित गोखर नाम कीओर वड रही हौ । अकेली, निविकार ! वह पन्द्रह-वीम डग का रास्ता कितना लम्बा दिख रहा है । मानो कोई स्वप्न देख रही हौ । स्वप्न में कदम-कदम 'बढाये चल रही हो, रुक-रुककर। पास जाकर धीमे से छवि ने कहा, “यहाँ ऐसे क्यों वैठी हो भाभी ! कसा रूप बना लिया 1!” छवि ने उसका आं चल उठाकर देहं ढाँप दी । माथे के वालों को मुदरी मे भर- भरकर पीठ की ओर कर दिया । कहा, “घर में चलो, ये माथे के वालो को ठीक करना है ।” धीरे-मे हाथ पकडकर ऊपर उठाया ! केला की पत्नी पत्थर की तरह बैठी थी । छवि ने हाथ पकड़ा तो धीमे-से उठकर खडी हुई। फिर हलचल मची, अबकी आशका भर गयी, पता नही कया करेगी ' कुछ नहीं किया, मानो वहू खडी- खडी कोई स्वप्न देख रही हो । छवि उसकी वाँहो को हथेली का सहारा देकर उसे घर के अन्दर ले गयी । बोली, “कोई आना तो जरा, विस्तर खाट पर डाल देना सो--” सिन्धु चौधरी ने कहा, “कोई औरत जाये उसके पास। वहू का जतन तो करना होगा, खाली देखने से क्या होगा ? अवक और पाँच-सात औरतें गयी । विछावन फीलाया गया, केला की पत्नी कौ खाट पर लिटाया गया, पखा झला गया 1 वह चुपचाप पडी रही । “अब सो जा ।” छवि की माँ ने कहा । दरवाजे से सिन्धु चौधरी वोले, “हाँ, पहले नीद दरकार है । ठाकुरजी ठीक कर देने-” “आँख मीच लो भाभी,” छवि ने स्निग्ध स्वर में कहा । उसके चेहरे की ओर ताकती रही केला की पत्नी, फिर उसने अपनी आँखें मीच ली । सच भर सपन के वीच झूल रही थी उसकी चेतना । उसका चुपचाप पड़े रहने को मन कर रहा था। एक-एक कर मव चली आयौ 1 दरवाज़े पर थी बुढिया शिखरा को माँ । उसके साय सपर्न। की माँ थी । वह केला की माँ की साधिन है, लम्बी हडीली भरत । खतं अमीत करो रुकी ने बाहरकाली कोठरी हे एस, “रात मे कौन सा रहेगण, घर गकी व्यवस्था कंसे-क्या होगी ?” वर्ग रह । केला की माँ को संभालने की व्यवस्था हुई । गाँव के लोग वाहर बैठ उपाय के बारे में सोचने लगे, मानो यह गाँव-भर की समस्या हो । सिन्धु चौधरी, छवि और उसकी माँ लौट आये । खाट पर लेटी-लेटी केला की स्त्री आधे चेतनावस्था .में.सोचने की चेप्टा कर रही थी। सिर में जैसे पहिया धूम रहा है। विश्वास ही नहीं होता कि इस तरह _माडीमुडाल : ४ भाग दो / 31




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