जैन दर्शन और संस्कृति परिषद प्रथम अधिवेशन की कार्यवाही | Jain Darshan Aur Sanskriti Parishad Partham Adhiveshan Ki Karyavahi
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
266
श्रेणी :
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No Information available about मोहन लाल बांठिया - Mohan Lal Banthiya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ११ 3
स्वभाव रहित होता है। इन्द्रजाल की ष्टि होती है उसे हम परिकल्पित कहते
हैं । कुन्दकुन्द ने देखा द्रव्यार्थी परमार्थी तो दह, पर हम व्याख्या नह कर सकते |
न्य का विकास हा, वह साथ में हुआ । वह क्यों हुआ ६ आखिर
जितने आए समावेश हों गये । यह सम्यगू दर्शन की देन है । जैसे पुनर्जन्म,
आत्मा, मुक्ति आदि हैं, यानि जहाँ थोड़ा भी संशय रदै उसे हम सम्यग् -दशन
की उक्ति में डाल देते हैं ।
शान तीन है--सम्यग्ज्ञान, मतिज्ञान ओर श्रुतनान। मतिज्ञान के आधार
पर हम बाह्य वस्तुको देख मकचैहै। आक्षेपदहोनेलगा। जेमी बस्तु रहेंगी
येसा ही तो मरतिज्ञान का विश्लेषण हो सकता है | बुद्ध ने कहू--वस्तु का जो
स्यभाव दे उसे हम नित्य क्यों कहें ४ सम्यग दशन से दृष्टि मिलती है | कुछ है,
हम जानते नही नएक अज्ञान की बात हुई । सवथा अतीत दै ता वतमान क्या
है / भविप्य कया है ८ बर्तमान किसका. कहेंगे १ जैनी ने कहा --क्षणिक्र वस्व
है उममें काय की क्षमता न रहें तो बतमान वस्तुत: वतमान में आ ही नहीं
सकता । बेदान्त ने कहा--जो बस्थु शाश्वत है उसीको बस्तर का स्वरूप माने |
बौद्ध ने क्ा-- जी अनित्य है बड़ी वस्तु का स्वरूप है। जेनों का कदना है
कि जितने भी दर्शन है उसमें साम्य ढूढ़ना । स्यादवाद, अनेकान्तवाद आदि के
लिय जेनो का मतिक्ञान जा है उसके आधार पर कहते हैं । बस्तुतः देवा जाए
तो दर्शन की प्रप्ठभूमि के आधार पर ही शान का विकास हज दै]
श्रुतज्ञान- श्रुत अनन्त है । प्रश्न है-जेन धर्म को कैन्द्र में रखकर विश्व
की कल्पना कर कि विश्व क्या है १ यह मत हमें आ गयी जिससे प्रत्येक
वेज्ञानिक ढंग में प्रवेश हो सकते हैं । समावेश करने का पथ जेनो ने प्रशस्त
बना दिया है। जेन इन तीनों के समावेश से विश्व के सारे विषयी को समा-
हित करना चाहते है |
उपरोक्त तोनों शान में जितने भी शास्त्र हैं सब समाहित हो सकते हैं और
किया भी है । ध्यान, तप, स्वाध्याय आदि ये सारे इसीके ही रूप हैं । संयम
का निकास कियाजाए। चरित्र भी शास्त्रों सें ध्यान की अवस्था में आता है।
ध्यान का बिषय क्या है १ जौ विघ्न मानने लगे तो तुरन्त अपनी मूर्ति की
उत्पत्ति हो गई। वृद्ध मूर्ति पूजा नहीं करते थे लेकिन बोद्ध धर्म में ध्यान
प्रतिमा थी । एक मी आधार लीजिये, अपने चित्त को उसमें स्थिर कीजिए |
वास्तव मे देखा जाए तो चित को स्थिरता के लिए ही मूर्ति की उत्पत्ति हुई
है| धीरे-धीरे मूर्ति की पूजा होनी भी शुरू हो गई, तप भी शुरू हो गया !
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