जैन दर्शन और संस्कृति परिषद प्रथम अधिवेशन की कार्यवाही | Jain Darshan Aur Sanskriti Parishad Partham Adhiveshan Ki Karyavahi

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Jain Darshan Aur Sanskriti Parishad Partham Adhiveshan Ki Karyavahi  by मोहन लाल बांठिया - Mohan Lal Banthiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ११ 3 स्वभाव रहित होता है। इन्द्रजाल की ष्टि होती है उसे हम परिकल्पित कहते हैं । कुन्दकुन्द ने देखा द्रव्यार्थी परमार्थी तो दह, पर हम व्याख्या नह कर सकते | न्य का विकास हा, वह साथ में हुआ । वह क्यों हुआ ६ आखिर जितने आए समावेश हों गये । यह सम्यगू दर्शन की देन है । जैसे पुनर्जन्म, आत्मा, मुक्ति आदि हैं, यानि जहाँ थोड़ा भी संशय रदै उसे हम सम्यग्‌ -दशन की उक्ति में डाल देते हैं । शान तीन है--सम्यग्‌ज्ञान, मतिज्ञान ओर श्रुतनान। मतिज्ञान के आधार पर हम बाह्य वस्तुको देख मकचैहै। आक्षेपदहोनेलगा। जेमी बस्तु रहेंगी येसा ही तो मरतिज्ञान का विश्लेषण हो सकता है | बुद्ध ने कहू--वस्तु का जो स्यभाव दे उसे हम नित्य क्यों कहें ४ सम्यग दशन से दृष्टि मिलती है | कुछ है, हम जानते नही नएक अज्ञान की बात हुई । सवथा अतीत दै ता वतमान क्या है / भविप्य कया है ८ बर्तमान किसका. कहेंगे १ जैनी ने कहा --क्षणिक्र वस्व है उममें काय की क्षमता न रहें तो बतमान वस्तुत: वतमान में आ ही नहीं सकता । बेदान्त ने कहा--जो बस्थु शाश्वत है उसीको बस्तर का स्वरूप माने | बौद्ध ने क्ा-- जी अनित्य है बड़ी वस्तु का स्वरूप है। जेनों का कदना है कि जितने भी दर्शन है उसमें साम्य ढूढ़ना । स्यादवाद, अनेकान्तवाद आदि के लिय जेनो का मतिक्ञान जा है उसके आधार पर कहते हैं । बस्तुतः देवा जाए तो दर्शन की प्रप्ठभूमि के आधार पर ही शान का विकास हज दै] श्रुतज्ञान- श्रुत अनन्त है । प्रश्न है-जेन धर्म को कैन्द्र में रखकर विश्व की कल्पना कर कि विश्व क्या है १ यह मत हमें आ गयी जिससे प्रत्येक वेज्ञानिक ढंग में प्रवेश हो सकते हैं । समावेश करने का पथ जेनो ने प्रशस्त बना दिया है। जेन इन तीनों के समावेश से विश्व के सारे विषयी को समा- हित करना चाहते है | उपरोक्त तोनों शान में जितने भी शास्त्र हैं सब समाहित हो सकते हैं और किया भी है । ध्यान, तप, स्वाध्याय आदि ये सारे इसीके ही रूप हैं । संयम का निकास कियाजाए। चरित्र भी शास्त्रों सें ध्यान की अवस्था में आता है। ध्यान का बिषय क्‍या है १ जौ विघ्न मानने लगे तो तुरन्त अपनी मूर्ति की उत्पत्ति हो गई। वृद्ध मूर्ति पूजा नहीं करते थे लेकिन बोद्ध धर्म में ध्यान प्रतिमा थी । एक मी आधार लीजिये, अपने चित्त को उसमें स्थिर कीजिए | वास्तव मे देखा जाए तो चित को स्थिरता के लिए ही मूर्ति की उत्पत्ति हुई है| धीरे-धीरे मूर्ति की पूजा होनी भी शुरू हो गई, तप भी शुरू हो गया !




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