भारतेन्दु के नाटकों का शास्त्रीय अनुशीलन | Bharatendu Ke Natako Ka Shastriy Anushilan

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Bharatendu Ke Natako Ka Shastriy Anushilan by गोपीनाथ तिवारी - Gopinath Tivari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न होकर केवल “राम दाब्द का ही छन्दों में प्रयोग देसकर यह मत बनाया गया होगा, ऐसी संभावना श्रधिक है । हृदयराम के हनुमन्ताटक में 'काशीराम' के भी छन्द प्राप्त होते हैं । यह कोई झग्य बवि प्रतीत होता है जिसने इस नाटक में कुछ छन्द श्रपने भरे हैं । परशुराम धसंग के भ्थिवाशि छत्द कालीराम-वूत हैं । हृदयराम-कूतत हनुमननाटक में सस्कृत नाटक के समान १४ ही प्रंक हैं किन्तु छन्द संख्या वहुत वदी-चद़ (१४६३) है । संस्कृत हनुमन्नाटक में कही- कही कवि स्वयं मच पर्‌ श्रारूर कथा को भ्रग्रमर कर्ता है श्रयवा पात्र का परिचय देता है किन्तु हृदयराम-कृत हनुमन्नाटक तो भन्य ब्रजमापा नाटकों वी नाई श्रारम्भ से अन्त तकः कवि द्वारा प्रवाहित है । धनेक स्थलों पर संस्हत हनुमन्नाटक की उभितयों के अनुवाद भी रखे गये हैं। वलभद मिश्र-कूत” तथा मजु ववि-कृत* दो हनुमर्नाटक श्रोर वतव जति ह किन्तु इनकी प्राप्ति नहीं हुई है । भरत. यह कहना कर्टिन है कि ये किस प्रकार के प्नूदित नाटक ये विन्तु जैसाकि ग्रन्य ब्जमापा नाटवी को देसने से ज्ञात होता है थे भी हृदयराम-कृत हनुमननाटक की शैली के ही रहे होगे । चोथा नाटक जगजीवन-कृत हि जो अनूप संस्कृत पुस्तकालय बीकानेर में है श्रौर जिसमें € भ्रंक है। यह भी जननाट्य दौली का नाटक है । इस काल में सटाकदि कालिदास-वुत अत्यन्त प्रसिद्धि प्राप्त 'समिज्ञान दाउुन्तलम्‌” के तीन श्रनुवाद प्राप्त हेते दै । इनमे से एक टै नेवाज कवि-कृत ाबुन्तला नाटबर (१६८० ई०) 1 नेवाज-गृत शद्धन्तला नाटक एवं महाकवि कालिदास-कृत श्रभिज्ञान दाकुन्तलम्‌' मे वड़ा अन्तर है, फलतः नेवाज-छृत शङ्न्तला नाटक को हेम मूल नाटक का अनुवाद भाव ही नहीं कह सकते हैं । अभिज्ञान घाउन्तलम्‌ में सात श्रंक हैं प्रौर नेवाज-कत्त शकुस्तला नाटक में केवल चार | कथा-कम में भी बड़ा अन्तर है । संस्टत नाइक मे दुप्यन्त को शकुन्तला की ससियाँ शकुन्तला-जन्म का प्रसंग बड़े ही संक्ष प मे सुनाती है, केवल छ.-सात पर्कितियों में ही महाकवि से काम चला लिया है । नेवाज ने इसी प्रसंग को नाटक « के प्रारम्भ में बड़े विस्तार से उठाया है ग्रौर्‌ स्वय वर्णन किया है। धन्य श्रंको में भी काट-छाँट की गयी है । फलत. नेबाज ने कथानक को श्रल्प रूप दिया है। छठें प्रक की कथा को कवि ने भ्रपने दाब्दौ मे इम प्रकार व्यवन किया है कि मूल नाटक का बाव्य एवं नाटकीय सौन्दर्य अत्यन्त क्षीण हो गया है। मूलं नाटकः मे इन्ध कैः मारथो मातलि का प्रवेश वडा ही नाटवीय है । वह विदुषकः का गला दवोचता है, विद्रपक श्रातेंनाद कर चिल्लाता है, तो नायक उसे बचाने के रन अंक $ के ८० से १०६ तक २. दिन्दौ सादिप्य का इनिदास् (ले० १० रागचद्् शुन्न), घटा सरकस्य, पृ० २०६ ३“ थावुनिक हिन्दी सादिः (ले° लच््सागर वाप्य), अ० सं०, ¶० १०८ पूर्व-भारतेन्दु-युगीन नाटक / १४ ₹ भ




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