समीचीन जैन धर्म | Samichin Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
120
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सूनुयोयोका स्वरूप ९
निधन है, शरीरादि सयोगो पदार्थं है । पुराणोमे भबान्तरका वर्णन पढ़कर उसकी
पुष्टि होती है । वे शुभ-अशुम ओर बुद्धोपयोगको जानते है । पुराणोमे जीवोके उन
उपयोगोकी प्रघृत्ति ओर उसका फल पटकर तत्वज्ञानमे दृढता भाती ह ।
करणानुयोगका प्रयोजन
करणानुयोगमे जीव ओर कर्मोका मुल्यरूपसे विवेचन होता है । गुणस्थानो
मौर मार्गणाओकै साथ कमेकि भेद प्रभेदो तथा उनकी अवस्थाओका विवेचन होता
ह । उन्हे पढकर जीवको अपनी पूर्ण दशाका तथा उत्थान ओर पतनका बोध होता
है । इस अनुयोगको जाने बिना जीव समारके बेन्धनमे मुक्तं नही हो सकता । इसके
पढनेसे उसे केवलज्ञानके द्वारा जाने गये सूक्ष्म पदार्थोका बोध होता हैं और उसकी
श्रद्वा दृढ होती है। इसमें उपयोग लगानेसे भन स्थिर होता है । करणका अर्थ
परिणाम ओर गणित दोनों है । अत इस अतुयोगमे जीवके परिणामोका तथा तीनों
लोकोके आकार आदिका कथन हू ता है।
चरणानुयोगका प्रयोजन
इस अनुयोगमे गृहस्थवर्म और मुनिधर्मका कथन हता ह । उसको जाने बिना
श्रावक और मुनि नही बन सकता ।
जो जीव तत्त्वललानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हे, उन्हे यह भासित
होता है कि एक देन व सर्वदेश वीत्तरागता होनेपर श्रावकं दशा ओौर मुनिदशा
होमी ह । जितने अश्म वीतगगता हैं उतने अशमे ही धर्म है और जितने अशमे
राग ह उतने अशम ही अधमं ह । वीतरागता ही सच्चा धमं ह् ।
द्रव्यानुयोगका प्रयोजन
द्रव्यानुयोगमे द्रव्योका ओर तत्वोका निरूपण है । जो जीव जीवादि द्रग्याको
और तत्त्वोकों नहीं जानते अपने को परमे भिन्न नही जानते उनको इसके अध्ययन
से स्व और परका बोध होनेके साय अनादि अन्नानता मिट जाती हे । तत्वज्ञानकी
सार्थकता द्रव्यानुयोगके अम्यासमे हौ है । द्रष्यानुयोगका मम्यास करते रहने पर
ही तत्वज्ञान रहता ह । न करे तो सब भूल जाता है । इसके भम्यामसे रागादि
घटनेसे शीघ्र सोक्ष होता है ।
अब इन अनुयोगोमे जो व्याख्यान है उसका विदलेशण करते है--
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