समीचीन जैन धर्म | Samichin Jain Dharm

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Samichin Jain Dharm by सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री - Siddhantacharya pandit kailashchandra shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूनुयोयोका स्वरूप ९ निधन है, शरीरादि सयोगो पदार्थं है । पुराणोमे भबान्तरका वर्णन पढ़कर उसकी पुष्टि होती है । वे शुभ-अशुम ओर बुद्धोपयोगको जानते है । पुराणोमे जीवोके उन उपयोगोकी प्रघृत्ति ओर उसका फल पटकर तत्वज्ञानमे दृढता भाती ह । करणानुयोगका प्रयोजन करणानुयोगमे जीव ओर कर्मोका मुल्यरूपसे विवेचन होता है । गुणस्थानो मौर मार्गणाओकै साथ कमेकि भेद प्रभेदो तथा उनकी अवस्थाओका विवेचन होता ह । उन्हे पढकर जीवको अपनी पूर्ण दशाका तथा उत्थान ओर पतनका बोध होता है । इस अनुयोगको जाने बिना जीव समारके बेन्धनमे मुक्तं नही हो सकता । इसके पढनेसे उसे केवलज्ञानके द्वारा जाने गये सूक्ष्म पदार्थोका बोध होता हैं और उसकी श्रद्वा दृढ होती है। इसमें उपयोग लगानेसे भन स्थिर होता है । करणका अर्थ परिणाम ओर गणित दोनों है । अत इस अतुयोगमे जीवके परिणामोका तथा तीनों लोकोके आकार आदिका कथन हू ता है। चरणानुयोगका प्रयोजन इस अनुयोगमे गृहस्थवर्म और मुनिधर्मका कथन हता ह । उसको जाने बिना श्रावक और मुनि नही बन सकता । जो जीव तत्त्वललानी होकर चरणानुयोगका अभ्यास करते हे, उन्हे यह भासित होता है कि एक देन व सर्वदेश वीत्तरागता होनेपर श्रावकं दशा ओौर मुनिदशा होमी ह । जितने अश्म वीतगगता हैं उतने अशमे ही धर्म है और जितने अशमे राग ह उतने अशम ही अधमं ह । वीतरागता ही सच्चा धमं ह्‌ । द्रव्यानुयोगका प्रयोजन द्रव्यानुयोगमे द्रव्योका ओर तत्वोका निरूपण है । जो जीव जीवादि द्रग्याको और तत्त्वोकों नहीं जानते अपने को परमे भिन्न नही जानते उनको इसके अध्ययन से स्व और परका बोध होनेके साय अनादि अन्नानता मिट जाती हे । तत्वज्ञानकी सार्थकता द्रव्यानुयोगके अम्यासमे हौ है । द्रष्यानुयोगका मम्यास करते रहने पर ही तत्वज्ञान रहता ह । न करे तो सब भूल जाता है । इसके भम्यामसे रागादि घटनेसे शीघ्र सोक्ष होता है । अब इन अनुयोगोमे जो व्याख्यान है उसका विदलेशण करते है--




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