त्याग भूमि भाग - 2 | Tyag Bhumi Bhag - 2

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हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।

विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन्‌ १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन्‌ १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन्‌ १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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खवत्‌ १६८५ 1 (३) सुद्‌ महान्भाजी ने सो अपनी भर से यह टी दिया दै कि मेरे शरीर का ख्या छोड दो--भसली बात तो स्वराज्य है; उसकी प्रापि मँ जुट पडो, भौर उसके लिए आकाश-पातार एक कर दो । साथ ही उन्ददोंने बताया कि विदेशी कपड़े का बहिष्कार, इस समय स्वगज्य-प्रति का प्रभावशाली कार्य-क्रम हो सकता है । और उसका मध्य. बिन्दु है खादी और खां । अतएव स्वराज्य-प्राप्ति के लिए हमें कम से कम इतना अवद्य करना चाहिए-- (१ ) विलायती यख का उपयोग हम बिलकुल छोड़ दें । विछायती वख पहनते था इस्तेमाल करते हष हमे शमं आने ल्मे भौर मन को अस्य पीड्‌ होने रगे । (२) केवल स्वदेशी टी वख पहने भौर वरतं । उसमे भौ जितनी अधिक्र खादी दस्तेमाल कर सकं नियम-पूतरंक करे--कम से कम हर भारतवासी एक करता ओर रोपी ग्ब दरी की भवदय पहनें भीर बहनें खादी की सादी या फिल- हाल कचुकीौ ही पहनने का नत्त धारण कर ङे । ८३) रज्ञ नि्म-पूवंक चखा या तक्ररी पर सूत काते । जिनं महामानी का जीवनादुशषं प्रिय है उन्हें इतनी बातों पर ख़ास तौर पर ध्यान देना चाहिए--- (१) मन, वचन और कार्य मे अधिकाधिक सत्य का अवलंबन करें । ( २ 9 मनुष्य -मात्र के प्रति प्रेस का स्यवहार करने का यह्न करें । (३) जीवन के हर अंग में संयम को प्रधानता दें: ब्या ख्री-पुरुषं, के पारस्परिक संबंध में, क्या भोजन-पान और रहन-सहन में, बया सुख और भोग की सामग्री में; सब जगह संयम से काम लेने की भादत डा । (४) भहतो से द्ुषादङत मानना छोड़ दें । ( ५ 9 हिन्दुओं और मुसशूमानो के वैमनस्य को घटाने में अपनी शक्ति कगावें । कम से कम अपनी ओर से उसे हदते मदे । (६९) नियमनिष्ठ और निभंस बनने का यल् करे । (७ ) मरे हुए पु की ही खारू का 'वमड़ा इस्तेमाल करें, कटे पट का नहीं । ४ श्रमरता की गोद म-- (८) जिन छोगों ने कुछ न कुछ काम अपनी तरफ़ ले रक्खा है वे इस उत्साह, भाव और लगन से उस्म जुट षदं, मानो महात्माजी को हम जीते-जी दिखा दें कि भापके न रहने पर भी हम अपने कामों को और भी ज़िम्मेवारी और दता के साथ करते रहेंगे । यदि हम इतना कर खक्के तो महात्माजी के मर जाने पर भी, सवदा हमें अमरता की गोद में दिखाई देंगे शौर यदि हम कोरे शब्दों से उनकी पूजा करते रहे तो वह इमारे सामने अमर होकर भी अपनेको मरे से बदतर सम- क्षगे । भौर मै ज़रूर मानता हूँ कि इस पिछली अमरता से पहली मूल्य हर तरह श्रेयस्कर है। यों तो महापुरुषों का जीवन जते चैनन्य का सोत भौर प्रकाश की शिख्त्रा होता है, वेषेष्टी रत्यु एक स्फूत्ति की बैटरी होती है। जीविस अवस्था में उसकी आत्मा शरीर के कंदुखाने में बंद रह कर अपना काम करती है; पर श्नु के पश्चात्‌ वह स्वतंत्र भौर स्वाधीन होकर फैरती और अपना काम करती हैं । अतणव, आइए, हम तो चिन्ता भर आदक्का की घटाओं को चीर कर अपने काम में आगे बढ़ते चले जावें और इसी बात पर परमात्मा का उपकार मानें कि इम मद्दात्साजी जैसी जिभूति के समय में उसीके देश में उत्पन्न हुए. रहे, उसके दूर किये, उसके लेख दे, उपदेश सुने भौर स्वराज्य की सेना में-एक छोटे और मामूली क्यो न हों-उसके सिपाही बनने का गौरव प्राप्त किया । और महात्माजी के पुरुषार्धी जीवन को देखकर उसकी सी विभ्रूति बनने का दोसला रक्‍खें । महात्माजी का जीवन क्या है १ भाश्षा, भमरता भौर आत्मा का सन्देश है; शीचन, जायूति, बछ और बलिदान का नमूना है । अमरता की गोद ऐसे ही जीवन के लिए सिरजी भौर खुली हैं। भो मजुष्य, तू सत्यु की भयानकता से न सिहर-उसके अंदर अमरता की ज्योति ज़गमगा रही है । तू रा-- श्रब हम श्रमर भये न मंरेंगे या कारण मिश्यात दियो तज, क्यो कर देह धरेंगे ? रागद्धेष जग-बध करत हैं, इनको नाश करेंगे | मरथा श्रनन्तकाल मे प्रानी, सो हम काल हरेग ॥ देह विनाशी हूँ श्रविनाशी, श्रपनी गति पकरेंगे । नासी-नासी हम धिरवासी, चांखे बह निखरंग ॥ दच्भिऊ उपाध्याय




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