हिन्दी - साहित्य | Hindi - Sahitya

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Hindi - Sahitya by सुधाकर पाण्डेय - Sudhakar Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ [ साहित्यकार इघर डा० हीरालाल जेन, मुनिजिन विजय, नाथूराम प्रेमी श्रादि ने पर्याप्त जन ग्रंथों की खोज की है । श्राचायं देवचन्द्र सुरि विक्रमी सं० ९१० में वर्तमान थे । इन्होने भ्रनेक जैन ग्रत्थो का प्रणयन किया । नयचक्त (लघु) इनका लिखा हृग्रा हे 1 इनके दिष्य माइतल्लधवल ने वृहत नयचक्र की रचना की 1 नयचक्र के अरतिचक्ति देवचन् के र्थो के नाम ह दर्ानसार, भाव संग्रहः श्राराधना सारं श्रौर तत्व सार । इनकी माषा हिन्दी के भ्रत्यन्त निकट की हं । उदाहरण स्वरूप नीचे उनकी एक रचना दी जा रही हं :- कादं बहूत्तदं संपयदं जई किविणहं घरि होड 1 उवहि णीरन खार भरिड पाणिड पियइ ण कोड ॥ कवि पुष्पदन्त जेन साहित्य के महाकवि माने जाते हं । यह्‌ दव परिवार में उत्पन्न हुए थे रौर वाद मे इनका परिवार जेन धर्मावलम्वी हो गया था । इनके पिता का नाम केशव महर तथा माका नाम मुग्धा था । ये श्रत्यन्त ब्रात्माभिमानी तथा टीम-टाम वाले कवि थे । इन्हें ्रपनी कविता पर स्वयं गवं था । इन्होंने अपने को झसिमान में काव्य-रत्वाकर झ्रादि उपाधियों से विभूषित किया था । ये श्रत्यन्त मस्त जीव थे; साथ ही दुबले-पतले, कुरूप ग्रौर निर्धन भी । राष्टू-कूट वंश के महाराज कृष्णराज तृतीय के प्रघान मन्त्री श्नौर उनके पुत्र के श्रा्रय मं रहते थे । इनके ग्रन्थो के नाम हं तिसः महापुरिस गुणालंकार, त्रिषष्ठि महापुरष गृणालंकार, णाय कुमार चरिड, नाग कुमार चरित, जसहुर चरिउ, यशोधर चरित श्रौर कोश ग्रस्थ । इन्होने खंड काव्य और प्रवन्व काव्य तो लिखा ही, ये विद्वान तथा पडित भी थे । इन्होने भ्रलंकारो का श्रत्यत सुन्दर निरूपण किया हे । कुच लोगो का एसा भ्रम ह कि शिव सिह संगर दारा उल्लिखित हिन्दी के प्रथम कवि पुष्प ये ही हं । पर उक्त पुष्प की कोई भी रचना झाज तक उपलब्ध नही ह । इन्दोने कवि के प मे अत्यन्त सफलता प्राप्त कौ । इनकी एक रचना का प्रंश उदाहरण स्वरूप नीचे दिया जा “रहा हं । संघ्या वर्णन श्रत्यमिई दिणेसरि निद सडणा । तिह पंथिय यिय भाणिय सडणा । जिहू फुरियउ दीवय दिस्तियड । तिह कंहाहुरणह दिस्तियड 1 निह संस्र राएुं रंजियय । तिहि वेसा राएं रंजियउ । निह भवणल्लड संतातियउ 1 लिह दिसि दिसि तिमिरइं मिलियाई । तिह दिसि दिसि जारइ सिलियाइं। . जिह॒'रयणिहि कमलइं मउलियाइं ॥ तिहू विरहिणी घयणइं, मउलियाइं ॥। तिस महापुरिष- गणालंकार-- (महापुराण)




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