कांजी मत विवेचन | Kanji Mat Vivechan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
289
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(रे 2
कर उन्हे एक कमरा बता दिया और दरी बिछवादी । इसके
बाद अनुमान ११-१२ बजे होंगे, मैं उनके स्वाध्याय प्रेम का
दिग्दर्शन करने गया, वहां मैंने उनको जलकल (नल) से ओक
(हाथ) लगाकर बिना छांना पानी पीते देखा और कहा कि-भाई
यह कया ? आपके तो झाज उपबास है, पानी पी रहे हैं ! और वह
भी बिना छाना १ मेरी वात का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा--क्यों
इसमे क्या दोष है! यह तो पुद्गल दै, शरीर भी पुद्गल है ।
पुद्गलं को पुद्गल ग्रहण फर रहा है । श्रात्मका इस से क्या
सम्बन्ध । आत्मा चेतन जल अचेतन, इसलिये इन दोनोंका कोई
सम्बन्ध दी नहीं हो.सकता |
यह सुनकर मेने उनसे पूछा-- भाई ! आप किस ग्रन्थ का
स्वाध्याय करते है ? तो. उन्होंने 'सोनगढ का साहित्य' दिखलाया
श्र प्रशंसा की । मैने सोचा धन्य है-ऐसे प्रचार को ।
ऐसे एक नहीं श्रनेक चंत मेने कलकत्ते मेँ रहते समय
देखे । आपको भी देखने मिले होगे ओर चारिका तिरस्कार केसे
होता है इसकी भी नजीर देखने मिली होगी |
यदह तो स्थानकवाती दिगम्चर जैन बने अब एक द्टोति
िगस्परर जनी कैसे होगणए इसका भी सुन लीजिये |
लगभग दो साल की बात है चाकस में श्रीमदाचाय वीर-
सागरजी अस्वस्थ ये | लोग उनके दशन दो आयां करते ।
जयपुर समीप है, श्यायद ही ऐसा कोई खंडेलवाल जैन हो,जिसका
, इख नं इख संबन्च जयपुर से न हो। इसलिये आयः लोगोंका
आवागमन चालू रहता । एक महाशय इंदोर से आये । कलकत्ता
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