विनोबा की ज्ञान गंगा में | Vinoba Ki Gyan - Ganga Me

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Vinoba Ki Gyan - Ganga Me by डॉ ज्ञानवती दरबार - Dr. Gyanvati Darbar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२ रण अध्यापक भी दाका-समाघान के छिए उनके पास आते थे । गिरते विवा को विशेष रुचि रही । वह कई वार मजाक में कहा करते है कि अध्यात्म- चास्त्रं के वाद अगर किसी शास्त्र में मेरी रुचि हूं तो वह गणितशास्त्र में । गर्मियों की छुट्टियों मे विनोबा ्रमण-आदि के लिए किसी शीतर स्थान पर या किसी कुटुम्बीजन के यहा न जाकर सहसा किसी सहपाठी सित्र की सेवा करने जा पहुंचते थे और उसकी सेवा-सुभ्रूषा मे ही अपनी चुटिट्या व्यतीत करते थे । इसी सेवा के आकर्षण तथा आध्यात्मिक प्रभाव से अनेक सहपाठी आज भी उनके साथ उनकी आज्ञा के अनुसार रचनात्मक कामो मै लगे ह । उन्हीके कारण एक-दो सहपाठियो ने ऊची डिग्रियो का मोह तक छोड दिया और कालेज से निकलकर देदय-सेवा के काम मे लग गये । विनोवा को डग्रियो का मोह नाम-मात्र को भी नहीं था । उन्होने अनासक्त भाव से अपनी सभी सार्टिफिकेटो को अग्नि की भेट चढा दिया था और उनसे निकलती लौ की ओर इगित करते हए अपने मिनो से कहा था, “देखो, ये कंसे प्रकाशित हो रहे है ! ” हिमालय की ओर आध्यात्मिकता की ज्योति वाल्यकारु से ही उनके हृदय मे जल रही थी और एक दिन ऐसा आया कि उनमे हिमालय जाने की इच्छा बलवती हो उठी । उन्होने अपना यह निद्चय अपने साथियो को वताया । फिर क्या था, तीन-चार साथियो के साथ वह्‌ निकर पड़ । कुछ समय काशी में रुके । वहा एक स्कूल मे पढाने का काम किया । पढ़ाने के पारिश्रमिक-स्वरूप रोज के दो पैसे वह लेते थे, जिसमें से एक पैसे की शकरकद तथा एक पैसे का दही लेकर सतुप्ट रहते 1 पढाने के बाद झेष समय में गगा के तीर पर बैठकर दलोको की रचना करते ओर शाम को वे सारे इरोक गगामैया को अपित कर देते । उनके साथियों मे से एक का नाम भोला था । विनोवा का वह्‌ पक्का भक्त था । हर कोई जानता था किं विनोवा चिना परिथम किये खाना पसन्द नहीं करते । अत वह भी चाहे लकडी काटना, लकड़ी ढोना आदि काम ही क्यो न करना पड़े, शारीरिक श्रम अवर्य करता था। आज भी यह्‌ बाते विनोवा के जीवन मे है । उन्होने इसे अपना




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