पेड़ गिरता हुआ | Ped Girta Hua

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Ped Girta Hua by मख्मूर सईदी - Makhmoor Saidi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बहार लौट ही आई तो बया कि तूही न था नजर को जौके-तमाशा-ए-रंगो-बू ही न था अवस किसी से थी हुस्ने-क़दूल की उम्मीद हमे सलीक्-ए-इज्हारेआरजू ही न. था फिर उस सफ़र का तो लाहासिली ही हासिल थी क़दम किसी का सरे-रहे-जुस्तजू ही न था अब उस नजर ने भी आख़िर यही गवाही दी कि चाक दामने-दिल कायिले-रफ़ू ही न था कुछ और लोग भी थे जो हमें अज़ीज रहे सबब हमारी उदासी का एक तू ही न था सबव कुछ उस के तगाफ़ुल का पूछते उस से रहा ये रंज कि वो शख्स रूवरू ही न था जला दरखूत थी अपनी भी जिन्दगी “मर्मर रंगों में जिस की कोई जर्ब-ए-नसू ही न था खोके-दमाशा-ए्-रगो बू==रंग घौर गघ को देखने कौ सखि, प्रस न=गयय. वी थद्धा से स्वोड़ति, _ सलीक-ए-इर्हारे-भारजू स्‍्>बाकाका की अभिव्यर्जित की ध साहाधिौ = अप्राप्य. हासिलन्तप्राप्य. सरे-रदे-ुस्तनू खोज की राह पर योग्य. दिलन्क्दिल के दामन का फटा हुआ भाग. काविते-रय्‌य की सावना प्रदयोडस=श्रिय, तयाहूलन्=य्ेश्रा. जञ-ए-नमून्= विकसति हे वेद शगिरता हुआ 17




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