लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाएं | Lokadharmi pradanshanakari kalain

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Lokadharmi pradanshanakari kalain by देवीलाल सामर - devilal samar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किया । इस सरह नपे-नयें विचार मिलते रहे, सगे झनुभंव होते रहें भ्रौर मेरी लिखित सामग्री में कई वार संप्रोधन की झावस्यकता भी हुई । इस तरह मेरी पुस्तक ११६५ में ही तैयार हौ गई । उसी वपं मु पनः विदेश जानें का प्रवर मिला मौर सपने नवोत भ्तुमव के प्ाधार पर मेरी पुस्तक मे झनेके परिवर्तन आवश्यक हो गये । इसी दौरान कई मारतीय पन्नों के लिये भी मैं घपने विचारों को लेखबंद्ध करता रहा । उनमें से कुछ लेख मेरी इस परिवधित पुस्तक के झंश भी बन गये । पहले यह विचार था कि दस पुस्तक के गीत, त्य एवं नास्यपक्ष पर भलगं-भलग पुस्तक लिखी जाय । यह्‌ मनौःकामना पूरौ जी हो जात्ती, परन्तु बाद मे पैसा लगा कि इन तीनो का स्वतत् प्रस्तित्व कहं जगह विकारौ कौ पुनरावृत्ति के कारणा दुरबल पढ़ जायेगा । घतः इन तीनों का एकत समन्वित श्प ही पाठको के समक्त प्रस्तुत करना ठीफ समझा 1 ऐसा करने ने दो करटिनाद्यं खबण्य सामने चारं है, एक टै कईं परिच्छदो में वि्ारों को पुनरावृत्ति । गने जानवु कर इस पुनरावृत्ति को पथावत्‌ रहने दिया है । यदि उसे दूर करने का प्रयास करता तो विचार संबद्ध हो गाते भौर उनको कड़ियाँ टूट जाती । उदार पाठकों थे ल्मा-याचना करते हुए मैं उन्हें यबावत्‌ रखने को उनसे प्रनुमति चाहता हं । इसरी कंटिनाई जौ सामने पराई, यह पुस्तक के नाम की थी । सार्थकता को दृष्टि से इस पुस्तक का नाम होना चाहिये था ''मारतीय लोकसंगोत, लोकनृत्य, लोकफनास्थ- एक अध्ययन । इतना लंबा नाम शायद पाठकों को रुचता नहीं इसलिये इसका नाम मैंने लोक धर्मी प्रदर्शनकारी कलाएँ ही रखना उचित समझा । प्रदर्शनकारी शब्द से भी शायद कुछ मसहानुमावों को आपत्ति हों परन्तु यह शब्द झावश्यकत इसलिये हो गया कि लॉककला के भ्रत्य सप्रदर्शनकारी स्वरूपों से उसे बचाना था । बहुघा नुत्य, भीत, नाय्य ही अदर्शने योग्य होते हैं, चाहें उनका उपयोग स्वान्तः- सुखाय हो या जनता के मनोरंजन के निमित्त । _ इस पुस्तक में मैंने इन कलाम़ों के तात्तिक पक्ष को ही प्रधानता दो है क्योंकि इस समय हमारे देश में लोकमूरम, लोकनाट्य एवं सोकसंगीत के संबंध नें अने मत एवं ज्ञान्तियों अचलित हैं । हम प्सी भी किसी एक निम्र पर नहीं पहुँचे हैं। इस पुस्तक में लिवेचित अपना मत ही सर्वसम्मत मत मान चुं ठेसी धृष्टता भी मैं नहीं करूंगा । इसलिये मैं ईमानदारी के साथ साफ़ कहें देना उचित समझता हैँ कि ये सब मत मेरे सपने हैं, निनके पोछे मत ही त्यन्त चौभनिल घौर महत्त्वप्राप्त पुस्तकों के संदर्म ही कौप्ठक में न दिये गगे हों, परम्त मेरें पिछले ३४५ वर्षों का सनुमव इनमे भरव निहित है । मैं प्रपनी च




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