आगंतुक युवक | Aaguntak Yuvak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
410
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(११) ्रागन्तुक युवक
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दुर जाना हं! रतः समय खोना भी ठीक नहीं । मुझे
अप झन्तिम उपाय का ही आश्रय लेना चाहये । “शर्ट
भ्रति शायय कूयात् ' “शट के साथ शटता दी करना,
पूर्वो के साथ धृतं चनना, श्र सरल मचुप्यों के साय
सरलता का व्यव्हार करना योग्य दं इस प्रकार धिचार
कर उसके पास जो स्तमनकारी दिया थी उस विचाके
म्रमावसे उस युचकने दोनों भाइयोंको स्तंभित कर
दिया श्र अपने कियेका फल पाओ ! यह कह कर
वह च््दासि अन्यत्र चला गया ।
उस चिद्याके चोगसे वे दोनों भाई एस स्तभित
टामये कि उनके अ गोपाग भी हिल जुल नहीं सके ।.
परन्तु स्तंमकी माफक स्थिर दो थे दोनों खड़े ही रद
गये! थोड़े ही समयमें उन दोनॉकी सच्धियें टूटने
लगीं । इससे पीड़ाके कारण वे जोरसे चिल्लाने लगे ।
मृख लोग किसी भी कामकों करते समय जरा भी
साच विचार नहीं करते, पामर जीवोका यहीं लचण
ट् ।
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इस संसार्मं अक्ानी जीव कमं करते समय
श्रामामी परिणाम का वित्लङकल खयाल नदीं करते, वे;
चर्ममान कालका दी देखते ह 1 परन्तु वतेमान में किए.
हभ पापकर्म का जव कडवा फल भोगना पदता ह तच'
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