अहिंसा - दर्शन | Ahinsha-darshan

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Ahinsha-darshan by बलभद्र जैन - Balbhadra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्रातिस]- देन प © प द्यह्धिसा का प्रादुरभावि श्योर विकास मानव काल की श्रनेकों घाटियों को पारकर श्राज तक पहुँचा है । इन घाटियों के पार करने में उसे अनेकों अनुभवों का लाभ मिला है । उसे दुर्गम पथों को पार करने के लिये नये-नये मानव की श्राय उपाय सोचने पड़े हैं; उसके समक्ष जो कठिनाइयाँ मनोमूभिका श्राती गर, उनका समाधान पाने के लिये उसके | मनम सदाही एकं श्रद्म्य लालसा रही है और इस लालसा ने ही उसके पथों मे परिवतंन किया है, उसकी मनोभूमि मे परिवतंन किया है | इस दृष्टि से श्राज हम यह विश्वास- पूर्वक कहने की स्थिति में हैं कि मानव काल की श्राद्य घाटी में जो था, वह्‌ श्राज नहीं है, उसमे हूत परिवतंन हो चुके है । उस समय से श्राज उसका रूप दल गया, सचि बदल गहै, रहन-सहन श्रौर परिधान अदल गया, श्रावास शरीर संस्तरण बदल गया, श्रावश्यकताएँ तर उनकी पूर्वि के साधन बदल गये । कुल मिलाकर जीवन के मूल्य और दृष्टिकोण बदल गये ।




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