अनुराग पदावली | Anurage Pdawali

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श्री सूरदास जी - Shri Surdas Ji

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सुदर्शन सिंह - Sudarshan Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मनुराग-पदावली थे खोछते नहीं १ सुरदासजी कहते द कि वद ८ विप्रथकी ) ( इस प्रकार व्याकुछ होकर ) शरीर त्याग प्राणोके द्वारा उन आनन्दनिधिकी मूर्ति प्रसुको ( सदाके छिये ) प्राप्त हो गयी--उनसे मिल गयी । राग कल्याण [४] रति वादी गोपाल सौं । दादा दरि खों जान देहु प्रथु, पद परखति हँ भाल सो ॥ १ ॥ संग की खसं स्याम सनसुख भः मोहि परी पद्पाठ सों । परवस देष, नेह अंतरगत, कयौ मिलो सैन विसार सौ ॥ २॥ सठ ! दठ करि तूद्दी पछितेहै, यहै भेंट तोहिं बाल सौं । सूरदास गोपी तञ तजि कै, तनमय भह दलाल सौ ॥ ३ ॥ (एक ज्राहझ्मण-पत्नी कह रही है--प्रियतम 1) “गोपारसे मेरा प्रेम बढ गया है । खामी! हाहा खाकर (मै) तुग्हारे चरणोको मस्तकसे छूती हूँ; ( मुझे उन ) श्रीदरिके समीप जाने दो । मेरे साथकी सख्यो ( तो ) दयामसुन्दरके सम्मुख ( पहुँच ) गर्यी; ( किंतु ) मेरा ( तुम-जैले ) पझुपाल ( चरवाहे, मूर्ख ) से पाला पढ़ा है । ( ओह ! ) शरीर दूसरेके वराम ओर छृदयमें प्रेम है; ( एेखी दामे उन ) विशाल नेत्रों वारे ( श्यामसुन्दर ) से केसे मिदँ १ अरे मूखं ! ( अन्तमें ) दठ करके तु्हीं पश्चात्ताप करोगे; (समझ लो कि ) अपनी तरुणी भार्यासि तुम्हारी यही (अन्तिम) मेंट है ।” सूरदासजी कहते हैं कि शरीर छोड़कर ( वह ) गोपी ( विपर-पत्नी ) नन्दछालमें तन्मय ( एकाकार ) हो गयी | राग सारंग [५] पिय ! जिन रोके, जान दे । दँ रि विरद जरी चति हौं, इती वात मि दान दै ॥ १॥




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