वंशभास्कर | Vanshbhaskar

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Vanshbhaskar  by कृष्णसिंह जी - Krishnasingh Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५) समन खखीलनपं जातत सच्या नरी । प्याज़ अचनाप अआसलस्पनलक यालय से मालच प्िंहिराचन माल रखा नहीं ॥ * ॥ ग्रस्त दच दा रिद में चस्त भा चुधन ते द, अस्त भा प्रका दा हा हो! दा दूठा राधिनको । काच्यमय रत्न दादा! ठां ठां सप केकर से, हाहा पहची में भयो पात सु पविनक्षा ॥ रत्नपर राज चलवतक तच्रिदिव जान स्वांन संग हाहा' भों हतासन दृथचिनका । रत्नाकर फरूटा हाथ! य्रबानोध र्दटा हाय! कःट्पचरःृटादाय! कामद्‌ कविना ॥>२॥ हससे पाठक लोग ग्रेथकती के सत्य पीन का हाल समभग सकत हैं, कि ऐ से डाक के अवसर पर भी सच पीकर कविता बनाइ, तो सामान्य समय वा कहना है क्या हें टीका के नियम (? ) दीकाकार क्ते मित्र अननलाल ज्योतिषी का सिद्धांत है, कि किसी अरय क्रा म्वंडन करके ्पना पांडव दिग्वानेवाले अनेक विदान हे. ओरदोतर्है, परंतु किसी प्राचीन अथ का डन करक्र वित्ता दिखाने- वाल निदान उस समय से कम ही हात है द्तएव दस भी इस गंध का स्वण्डन नहीं करत, किन्तु व्वेाभात्करः' म जहां तहां इतिहास सम्यन्धी तियां दिखाई दती हैं उनको टीका से स्डुधार क्र अ्रधवा उत्तर पाठिका में थी खधाग कर वरानास्कर'' 7 सगडन हो करग ) जद्ां पर च्यग्य पथय र पदा यलकार ्रादि काठन स्थल अजवेगेत हो लविस्नर दाका करक उस ्रादायको खाल दुचग. परतु जदा सुगम पक रण द्र तहां कवल टिप्पणी; छरंग. शोर श्टरिन दाच्द्‌ कं ऊपर अक द्‌कर यी दयक नीच दर रपछाध 1लग्लदग (३) ग्रंयकर्ता ने इस ग्रेंष में ख्रपब्रंठा मापा के अनुसार विभक्तिया का लोप करदिया है, जिनका आधे सब साधारण फें समकने के लिय वि भाक्तियां का ग्रथ खालक दिखादगे (2 ) बहधास्वरलांमं प्रयतता (स्ममल्ल) नन्तव्दारूयनामाकं प्रागे चक लिग्ब द्विम रे दरी उनक्रा ग्रथद््‌, दसालय उन द्याव्दा का अध हम कुक न मे लिखेंगे। प्योाके उन रान्द्‌ का वद्‌ उ्ंक ही अथ है. जस सुन काथ 9 दाते मोर सात का अंक सुनि शब्द के आग कियाइुआ है तो वहां उस व्या अप है. फिर टीका का छूधा विस्तार करने स काइ लाभ नहीं. इस प्रक




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