जिनवाणी संग्रह | Jinvani Sangrah
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30 MB
कुल पष्ठ :
814
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परिजन साथजी भाः जाप व भक्ते
ब्रह्मचारी हनानदकत
अति पुण्य उदब मम आया, प्रु तुमरा ददन
श्या । अ्ंतक तुमको विन जाने, दख पये निज
गुण हाने ॥ पाये अनेते दुःखअबतक, जगतको
निज जानकर। सर्व॑ माषिति जगत हितकर धमं
नहि पदिचानकर ॥ भववध कारक सुखप्रहारक
विषयमे सुखमानकर । निजपर विवेचक ज्ञान
मय सुखनिधि सुधा नहिं पानकर ॥१॥ तव पदं
मम उरमे आये, छखिकुमति पिमोह पराये ।
निजङ्ञान कल उर जागी, रुचि पूणे स्वहितमें
लागी ॥ श्चिठगी हितम आत्मके, सतसंगमें
अव मन खगा । मनमें हुईं अब भावना, तब
भाक्तिमें जाऊं रगा ॥ प्रियवचनकी हो टेव गुणि
गुण गानमें ही चितपंगै। झुभ शास्त्रका नितहों
मनन, मन दोषवादनतें भगे ॥२॥ कब समता
उरमें खाकर, द्वाद अनुपरेक्षा भाकर । . ममता-
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