10 वीं से 13 वीं शताब्दी के समकालीन हिन्दू साहित्य के आधार पर उत्तर भारतीय समाज में नारी की स्थिति एवं भूमिका का चित्रण | 10Vin Se 13Vin Shatabdi Ke Samakalin Hindu Sahitya Ke Aadhar Par Uttar Bharatiy Samaj Men Nari Ki Sthiti Evm Bhumika Ka Chitran
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
343
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)विधि-विधानो मे जटिलता का समावेश होने लगा था।“ किन्तु फिर भी धार्मिक-कृत्यो में
पति के साथ पली की उपस्थिति आवश्यक समझी जाती थी।* इस प्रकार ब्राह्मण
काल सम्भवतः लियो की स्थिति के सन्दर्भ में सक्रान्ति काल था, धार्मिक क्रियाओं में
जटिलता और विभिन्न सामाजिक-संस्थाओं के विकसित होने के कारण ख्रियों का कार्यक्षेत्र
धीरे-धीरे सीमित होता जा रहा था, किन्तु अब भी ख्री धार्मिक कार्यों मे पुरुष की
सहधर्मिणी भी । ^ यास्क के अनुसार यदि किसी पुरुष का पुत्र न हो तो इसकी विवाहिता
पुत्री पिता की अत्येष्टि-क्रिया कर सकती थी।
हिन्दू समाज मे आदिकाल से बहुविवाह की प्रथा रही है, ऋग्यैदिक
समाज मे भी अभिजात वर्ग के पुरुष कई पत्नियों रखते थे।* ऋग्वेद में हमें विधवा
शब्द का प्रयोग अवश्य मिलता है किन्तु उसकी सामाजिक स्थिति का कोई विशेष बोध
नहीं होता ।*' वैदिक कालीन साहित्य से विदित होता है कि पुनर्विवाह तत्कालीन समाज
41 शतपथ ब्राह्मण - 1.1.4 13
42. पतरेय ब्राह्मण 1 25; शतपथ ब्राह्मण 5.1.6 10
43. अल्तकर वुमेन पोजीशन इन हिन्दू सिविलाइजेशन पृ-202
44. ऋग्वेद 1.62 11, 1 71.1, 1.104 3, 1.105.8, 1.112.19, 1.168-8-6, 53, 4
45. अवेद 1/87/31, एक स्थान पर वर्णन है कि मरूत के वेग से जिस प्रकार
पृथ्वी कोपने लगती है उसी प्रकार पति से विछोह होने (मृत्यु होने) पर ख्री
दुःख अथवा दुर्व्यवहार के भय से कोपिती है।
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