अथर्ववेदसंहिता | Athrvavedsanhita

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Athrvavedsanhita  by जयदेव शर्मा - Jaydev Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(९३) जिस प्रकार हल की फली से खत जात लेने पर उसमे पदा वोज खूव फलता है, उसी भकार इस भिरोम्णि वारा राष्ट्‌ के उत्तम रीति से तेयार हो जान पर राष््‌ मे सुक राजा फी प्रजा, पृ शरोर सव प्रकार के रत्र खूब बढ़ें । (४) वरणमणि उक्क फालमणि के समान दी चरणमखि क बांधने मे श्रयं मे दरणो अमखि ०: इत्यादि का० १०। सू० ३ ॥ का विनियोग लिखा गया है । इस सम्बंध में भी हमें कुछ विशेप कहना उचित नहीं जान पढ़ता । इतने से ही पाठक जान कि लें इस सूक़ में वरणमाणि के दिये विंगोपण वरणा चृत्त के काष्ट- खण्ड म न घट कर वीर नेता पुरुप में ही घटते हैं । जैसे-- १--अय्‌ं मे व्रणो मणिः सपनक्षयणो दृषा । तेनारभस्वं स श्रन्‌ प्रमूणीदि दुरस्यतः ॥ १ ॥ चररामणि शदो का नाशक, वलवान्‌ पुप शर्थात्‌ “वृषा है । उसके ब्ल पर है राजन्‌ ! तृ गतुश्रो का नाश कर, दु9् को कुचल डाल । २-अवारयन्त चरणेन देवा: मभ्याचारम्‌ मघराणां धः शचः ॥ २ ॥ वरण के वल सेः विद्वान्‌ लोग दुष्ट सुरौ के अत्याचार को चरा चर्‌ दूर करते हैं । स ते शत्रनू मधरान्‌ पादयाति पूर्व: तानू । दम्लुहटि ये खरा द्विपन्ति ॥ ३ ॥ ष चह तेरे शत्ुधों को नीचे गिरि श्रौर सव से प्रथम बह उनको मरं जो राजा को प्रेम न करके द्लेप करते हैं । चरण के स्पष्टीकरण के लिये स्वर चेद लिखता है-- अर्यं मे वरण उरसि राजा देवो वनस्पतिः ॥ ११ ॥ यह मेरा 'चरणु' छाती पर बाहू के समान सन्निय, राजा, स्ाहात्‌ विजयी है घर बढ़े दृत्त के समान सबका आश्रयप्रद वनस्पति है. |




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