सहजानंद सोपान | Sahajanand Sopan

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Sahajanand Sopan by घासीलाल जी महाराज - Ghasilal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न क ९ ना । | । न 0-11-4: 4 य इस जगतमें मानव सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। इसमें मनकी शक्ति बढ़िया होती है। विचार करनेकी, तक करनेकी अच्छी योग्यता होती है। इसलिये इरएक मानवको यह विचार करनेकी जरूरत है कि किस तरह वह सपने जीवनको, अपने जीवनके समयकों उत्तम प्रका- रसे व्यत्तीत फरे । माकुलित, क्षोभित व चिंतातुर जीवन अशुभ हैं। निराकुल, शांत व. निंतारहित जीवन झुम हैं, इसमें मतमेद नहीं है । जगतके प्रायः सर्वे ही प्राणी इन्द्रियोंके विषयभोगसे ही सुख मानते हैं और जन्मसे मरण पर्वत इसी सुखके लिये अपनी शक्तिके अनुसार उद्यम किया करते हैं तथापि इस सुखसे निगकु, शांत चिंतारहित नहीं होपाते हैं । क्योंकि इन्द्रियोंफे विषयभोगोंभें इच्छा या तृण्णाकी दाद चढ़निका प्रसिद्ध दोष है। जितना जितना इन्द्रि- योका भोग किया जाता है उठनी उतनी विपयभोगकी तृष्णा बढ़ती जाती है । तृष्णासे नवीन नवीन विषयोंके पदार्थोको चाहता है, उनके लिये उदाम करता है । उद्यम करनेपर भी जब प्राप्त नहीं होते हैं तब बहुत कष्ट पाता दै। पढि कदाचित्‌ प्राप्त किये हुए इच्छित विषय बिगढ़ जाते हैं व उनका वियोग होजाता है ती उसे मद्दान दुःख होता है। इस तरद इन्द्रियोंके द्वारा छुखकी मान्यता सत्य नहीं है । सुख उसे ट्वी कह सक्ते हैं जो निराकुलता देवे, शांति प्रदान करे व निंतामोंको मिटावे । वह छुल॒सात्मीक सदन सुख है. |




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