हिन्दी के प्रगतिशील कवि | Hindi Ke Pragatisheel Kavi

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Hindi Ke Pragatisheel Kavi by डॉ रणजीत - Dr Ranjeet

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

डॉ रणजीत - Dr Ranjeet

परिचय

जन्म : 20 अगस्त 1937

जन्म स्थान : ग्राम कटार, जिला भीलवाड़ा, राजस्थान, भारत

भाषा : हिंदी

विधाएँ : कविता, कहानी, आलोचना

प्रकाशन : दस काव्य संकलनों सहित कुल मिलाकर तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित, जिनमे प्रमुख हैं --प्रतिनिधि कविताएं और प्रगति शील कविता के मील पत्थर तथा आज़ादी के परवाने (भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की हुतात्माओं की जीवनियां)। सामाजिक सरोकारों पर सम्पादित त्रयी : धर्म और बर्बरता ,साम्प्रदायिकता का ज़हर और जाति का जंजाल। जाने माने निरीश्वरवादियों के जीवन संघर्ष पर : भारत के प्रख्यात नास्तिक और विश्व के विख्यात नास्तिक।

मुख्य कृतियाँ -

कविता संग्रह : ये सपने : ये प्रेत, अभि

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कसी एक सपाट-दयानी के साथ भी प्रस्तुत किया । इन नयी संज्ञाओं में 'युयुत्सु कविता, 'आज की कविता' और श्रतिश्रुत कविता' ये तीन संज्ञाएं आपेक्षिक रूप से अधिक प्रचलित रहीं । तीसरे दौर में नयी कविता के वर्चस्व के कारण प्रगतिशील कवियों की राजनीतिक चेतना मे भी एक तरह का सौधरापन-सा सा गया था, वह सातवें दशक में नयी कविता फे मिय के दटते-दर्ते समाप्त होने लमा । नवयुवक कवियों की एक पुरी की पुरी पीढ़ी नयी कविता' से अपने को अलग घोषित करती हुई प्रगतिवांद के प्राथमिक दौर जंसे उत्साह के साथ कुंठाहीन स्वर में फिरसे राजनीति को कविता का दिपय बनाने लगी । इस दौर की प्रगतिशील कविता में विद्रोद के तीन स्तर देखे जा सकते हैं: जनवादी विरोध, कुछ जिम्मेदार विद्रोह मौर एक दुस्ताहसिकतापूणं समग्र विद्रोह । क्रान्तिकारी हिंसा को इससे पहले कभी कविता के केन्द्र में स्थापित करने की ऐसी कोशिश नहीं की गयी, जैसी इस युग के एक विद्रोही प्रूप ने की है। कुल मिला कर सातवें दशक की प्रगतिशील कविता अधिक प्रखरता पूर्वक राजनीतिक होकर भी निश्चित राजनीतिक दलों और सिद्धान्तों के दवाव से पांचवें दशक की कविता की अपेक्षा अधिक मुक्त है । बड़े से बड़े साम्यवादी देश कै नेताओं की मालोचना भौर पहा तक कि भत्संना करने की हिम्मत मौर गुंजाइश उसने प्राप्त कर ली । दो-तीन या और भी अधिक अन्तरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय साम्यवादी मतवादों के विकल्प के सामने रहने से नवयुवरक प्रगति- शील कवि को भपनी संकान और रुचि के अनुकूल मतवाद को स्वीकार करने था हर मुद्दे पर स्वयं सोच कर फैसला करने की जेसी गुंजाइश इस युग में रही, बैसी पहले कभी नहीं थी । समसामधिक 'अकविता' आदि काव्यात्दोलनों के प्रमाव-स्वरूप इस युग की प्रगतिशील कविता में कभी-कभी शब्दों की निरधक संयोजना, बास्तविक दुनियां के अम्तिकरण और कुत्सापूर्ण शब्दावली के प्रयोग की प्रवृत्ति भी दिखायी देती है । इस दौर की कविता के अस्तगेंत राजीव सबसेना का आत्म निर्वा्तन, रण- जीत का इतिहास फा दर्द, जुगमदिर तायल का सुरज सब देखता है, मृत्युंजय उपाध्याय का किस्तु, श्रीराम दालम का कल सुबह होने से पहले, हरीश भादानी का सुलगते पिंड, केदारनाय अग्रवाल का आग का आईना और भारतभरुपण अग्रवाल का एक उठा हुआ हाथ और घुमिल का संसद से सड़क तक आदि संफ्रलनों के अतिरिक्त कूमारेन्द्र पारस नाथ सिंह, विजेन्द्, अजित पुष्कल, आदि अनेक तरुण कवियों की चिट-पुट कविताएं आ जाती है । ११




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