प्राचीन भारतीय साहित्य | Prachin Bharatiy Sahity

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Prachin Bharatiy Sahity by मोतीलाल बनारसीदास - Motilal Banarsidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ठीकाकारों की अविच्छिन्न परम्परा ध्‌ साहित्य क इन उपरिनिदिष्ट विभिन्न अगो मे सदियों के साथ-साथ, कितनाही वाडमय निरन्तर उपचित होता गया--जिसका एक विंहंगम-पयवेक्षण प्रस्तुत कर सकना तक मुदिकल है; क्योकि--धामिक साहित्य के प्राय; सभी विभागों में ओर, उमौ प्रकार, कन्य तथा विजान के अगोपागो मे, टीकाकारो की एक अविच्छिन्न परम्परा बडे मनोथोग के साय प्राचीन वाडमय को विकसित करन मे पीढी-दर- पीढी जुटी रही है। इसीलिए वृद्धभारत कै व्याकरण, दशेन, एवं धर्मशास्त्र विषयक जितने भी प्रामाणिक और महत्वपूर्ण ग्रथ आज हमे मिलते है--वे, अधिकाश, प्राचीनतर 'सुत्रो' के व्याख्यान मात्र है। और प्रायः ऐसा भी हुआ कि इन टीकाओ पर अन्य टीकाए लिखी गई; भारत मे, सचमुच, यह भी अक्सर देखने मे आता है कि प्रत्थकार अपनी ही कारिकाओं पर आप-ही एक वृत्ति जोड जाता है। सो, यह भाश्चथं की बति नही किं भारतीय सहित्य की विपुलता को देखकर बुद्धि दग रह्‌ जाती है । ओर, इसके बावजूद कि भारतीय पाण्डुलिपियो कौ विपुल सूचियां भारत तथा यूरोप के पुस्तकालय मे, स्त्र महसनो लेखको ओौर ग्रन्थो के नाम मिनाती टै, कितनी ही-सख्यातीत, अमृल्य-रचनाए (भारतीय साहित्य की } काल के गर्त मे नष्ट हो चुकी हैं--उनका निर्देश भी कहीं नही हो सका ! कितने ही लेखक ऐमें है जिनका नाम हम परतर लेखको के उल्लेखो मे, या उद्धरणों मे, ही पाति है ` उनका ओर उनकी कृतियों का कुछ भौ चिल इम “स्मृति-झेप' के अतिरिक्त --यदि था, तो,--मिट चुका है । भारतीय साहित्य की प्राचीनता, भूगोल तथा विपय कौ दृष्टि मे व्यापकता, उसकी आन्तरिक सम्भृति ए केमनौयता, ओर मानव सस्कृति के इतिहास की दुष्ट से उसका मूल्य--ये सब चीज है जो पाडचात्य जगत्‌ को दमक महा, मौलिकता, तथा प्राचीनता की ओर बरबस आकर्ित कर केती है। इसके अतिरिक्त, कुछ और विशेषता भी है जो केवल भारतीय साहित्य मे ही पाई जाती है वह यह कि इण्डो-आर्यन भाषाओ (तथा ईरानी भाषा) का सम्बन्य उस महान्‌ भाषा- परिवार से. रहा है जिसके अन्तगतं जर्मन भाषा ओर धूरोप कौ प्रायः सभी भाषाएं एक सपुक्त परिवार की भाति आ जाती है । इण्डो-ईरानी भाषाएं वस्तुतः इण्डो-यूरोपियन मूल परिवार की ही एक सुदूर-पूर्वी लाखा है। और सच बात तो यह है कि (सस्कृत मे लिपि-बद्ध ) भारत का यह प्राचीन साहित्य ही था जिसकेद्रारा विश्व के इतिहास मे एक युगान्तर आया ओर, परिणामत , अब हम पूवं और परचम के बिसरे, प्रागतिहासिक, सम्बन्धो को कुछ-कुछ समझने कगे है । भाषाओं को एक-वशता का सिरा पकडकर हम स्वभावनः इन विभिन्न भागाओ के उस आदिमूल की ओर चले भी जो इण्डो-य्‌रोपियन भाषाजो कौ विभिन्न जातियों को परस्पर एकसूत्रित करता है । यह सच है कि दष्डो-यूरोपीय जातियों के




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