चांदी की रात | Chandi Ki Rat

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Chandi Ki Rat by कमल शुक्ल - Kamal Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चांदी की रात | है २१ कि अभागिन नहीं; मैं सौभाग्यवती हूं । मुझे खोया प्यार मिछा है । में बहुत खुश हूं । काया ! इस रात का सवेरा न हो और मैं ऐसी ही वावरी बनी रहूं! कि = माघ का महीना आरम्भ होते ही वागों में कोयल बोल्ने लगी 1 फले चेत भौर फूल उठीं फुलवाड़ियाँ भी । भ्रमर गान करते ओर वहती वसंती मस्त पवन । गांव की जवानी झूम-झूम उठती । कुमारी अपने में प्रसन्न थी । वह सावित्री को विमुख नहीं होने देती, स्नेह-भाव से उसे हाथों-हाथ लिये रहती । सास को उठा कर पानी नहीं पीने देती और ससुर की सेवा इस भाव से करती कि मानों वह उसके कुछ का पुज्य-देवता हो और भादि पुरुप । एक दिन प्रात: जब वह पति को चाय देने गयी तो बैठ गयी एक कुर्सी पर और ठुड्ढी पर हाथ रख धीरे-धीरे कहने लगी-“अब तुम्हारी तवियत अच्छी है । सावित्री बहन यहां हैं ही; अगर आज्ञा हो तो मैं मदन गाँव लौट जाऊं ।” अनिल स्वस्थ हो चुका था । वह बैठा समाचार पत्र पढ़ रहा था । उसने भखवार पर से दृष्टि उठायी, पत्नी की ओर देखा फिर किचित युसकराहूट के साथ सहज स्वर मरं बोला-“मदन गाँव, कितना प्यारा नाम है कुमारी । मैं ससुराल बहुत दिन से नहीं गया । चलो मैं भी घूम जाऊ 1” यह मेरा सौभाग्य है । चलो कक ही सवेरे हम लोग यहाँ से चछ दे 1 कुमारी के मुंह से यह सुन अनिल केटली से कप में चाय डालता हुआ वोला-'“और फिर वहीं से सीधे लखनऊ चल देंगे । अब पुम मदन गाँव




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