आकाश के तारे धरती के फूल | Aakash Ke Tare Dharti Ke Phool

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Aakash Ke Tare Dharti Ke Phool by कन्हैयालाल मिश्र -Kanhaiyalal Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कचिकी पत्नी “पा खास तरदकी कुश्ती लड़ता हूँ । पत्नी फिर विधादकी सुद्रामं स्थिर हो गई | कविने कहा--“क्यों अब क्या हुआ हो “छुआ क्या; तुम सुक्ते खोओआग किसी दिन | “प्यों ? कुश्तीमं ता ज़ेवर नहीं जान !”” नहीं जाते; ता क्या, दाथ-पेर तो टूटने हु ।' “न मे जुआ खेलता हूँ, न कुश्ती ढड़ता हूँ । यद सब ता में ुमसे हँसीम कह रहा था रानी “फिर यह कहाँसे जीतकर लाये हा 7 (कविताका अर्थ परनी समभ्द नहीं सकती) “मे गाले लगता हूँ और ोगांका याकर नुनाता हूँ । खुश देकर वे सुक्ते इस तरदके इनाम देते हैं । “श्वेर, गाने जाइनेमें ता काई दल नहीं । दमारे गाँधनें भी उंसी मीचर चौचेलि जाइता है । दोलि्विमें ढोग उसे सिर पर उठाये फिस्तें हू | तुम भी चौवोालि जाइत होगे ?”” “हूँ ! 1” एक मरी-सी ध्वनि कविने कद्दा और पत्नीकी अंतर देस्वा । पत्नीकी आँखांमिं गवकी प्रसन्नता फूट रही थी । पतिकी ऑस्योंमिं आयें डालकर उसने कहा--“अयकी दोल्यिंमिं तुम हमारे गाँयसं चलना । रातको चोपाल्यर एक न्वौवाला तुम कहना; एक दंसी कटेगा । सच कद़ती हूँ; वड़ा मज़ा रहेगा । 2




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